Wednesday, December 11, 2013

समाधि से ऋतम्भरा प्रज्ञा की प्राप्ति होती है - अशोक "प्रवृद्ध"

समाधि से ऋतम्भरा प्रज्ञा की प्राप्ति होती है
अशोक "प्रवृद्ध"

समाधि का अर्थ है अपनी पूर्ण शक्ति कों केंद्रित कर जीवन रहस्य को समझने का यत्न करना , जो सत्य ज्ञान हो जाता है । यह समाधि दो प्रकार की है - सविचार और निर्विचार । सविचार समाधि से प्रकृति की सूक्ष्म बातों का ज्ञान होता है और निर्विचार समाधि का फल अध्यात्म ज्ञान की प्राप्ति है ।
ऐसा योगशास्त्र में लिखा है -
एतयैव सविचारा निर्विचारा च सूक्ष्मविषया व्याख्याता ।।
सूक्ष्म विषयत्वं चालिङ्गपर्यवसायनम् ।।
ताः एवं सबीजः समाधिः ।।
निर्विचार वैशार्द्येSध्यात्म प्रसादः ।।
 जब समाधि सफल होती है तो मनुष्य में एक विशेष प्रकार की बुद्धि उत्पन्न होती है , जिअको ऋतंभरा कहते हैं । इससे इन्द्रियों से जाने तथा अनुभवादि से प्राप्त हुए ज्ञान में भी विशेषता प्राप्त होती है
 इस ऋतम्भरा प्रज्ञा के प्राप्त होने से एक नवीन प्रकार के संस्कार उत्पन्न होते हैं । ये संस्कार इन्द्रिय ज्ञान और अनुमानादि से उत्पन्न संस्कारों से भिन्न प्रकार के होते हैं । यह निर्वीज समाधि को उत्पन्न करने वाले हैं । निर्बीज का अर्थ है कि ये संस्कार साधारण संस्कारों की भांति सांसारिक कर्मों का बीज नहीं बन सकते ।
इसको इस प्रकार लिखा है -
ऋतम्भरा तत्र प्रजा ।
श्रुतानुमाप्रज्ञाभ्यामन्यविषया विशेषार्थत्वात् ।
तज्जः संस्कारोंSन्यसंस्कार प्रतिबन्धौ समाधिः ।
तस्यापि निरोधे सर्व्निरोधान्नि र्बीजः ।।
जिन मनुष्यों के संस्कार वही हैं जो इन श्रवणादि इन्द्रियों और अनुमान आदि प्रमाणों से प्राप्तं होते हैं , वे तो मूर्ति पूजन करते  समय यह समझते हैं कि भगवान् उसमे ही हैं और वह पूजन से प्रसन्न हो रहा है । वे बेचारे भूल में फंसे यही समझते हैं कि उस पूजन से उनको ऋद्धि - सिद्धि तथा मोक्ष मिलने वाला है । परन्तु ऋतम्भरा प्रज्ञा वाला मनुष्य यह जानता है कि शिवलिंग एक पत्थर का टुकड़ा है । इस पर भी यदि वह उसका पूजन करता है इस कारण नहीं कि उससे भगवान प्रसन्न होता है , प्रत्युत इसलिए कि इससे आत्मोन्नति होती है ।

मंदिर , मस्जिद , गिरजाघर में एकत्रित होना एक सामाजिक कृत्य है। इससे लोक संग्रह होता है ।
परमात्मा क्या इतनी क्षुद्र भावना और आत्म - श्लाघा वाला है कि मंदिर अथवा गुरू - ग्रन्थ साहब पर दो पुष्प चढ़ा देने से प्रसन्न हो जाता है ? वह तो निरंतर निष्काम भाव से अपना कर्तव्य पालन करने से प्रसन्न होता है । इसमें दो बातें ध्यान देने योग्य हैं । एक तो कर्तव्य का ज्ञान और दुसरे कर्तव्य पालन में लाभ - हानि का विचार छोड़ देना ।  ये दोनों बातें योग - ध्यान , तपस्या , स्वाध्याय तथा इश्वर प्रणिधान से उत्पन्न होती है ।

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