Tuesday, December 16, 2014

निश्चयात्मक बुद्धि और अनिश्चयात्मक बुद्धि -अशोक “प्रवृद्ध”

राँची, झारखण्ड से प्रकाशित होने वाली दैनिक समाचार पत्र राष्ट्रीय खबर के सम्पादकीय पृष्ठ पर आज दिनांक - १६ / १२ / २०१४ को प्रकाशित आलेख - निश्चयात्मक बुद्धि और अनिश्चयात्मक बुद्धि


निश्चयात्मक बुद्धि और अनिश्चयात्मक बुद्धि
-अशोक “प्रवृद्ध”

बुद्धि दो प्रकार की होती है -निश्चयात्मक बुद्धि और अनिश्चयात्मक बुद्धि। श्रीमद्भगवद्गीता में निश्चयात्मक बुद्धि को व्यवसायात्मिक बुद्धि और अनिश्चयात्मक बुद्धि को अव्यवसायात्मिक बुद्धि कहा गया है। निश्चयात्मक बुद्धि एक ही होती है, अनिश्चयात्मक बुद्धि अनेक दिशाओं को जाने वाली होती है, इस कारण निश्चयात्मक बुद्धि प्राप्त करनी चाहिएl इस निश्चयात्मक बुद्धि को स्थिर बुद्धि कहते हैंl श्रीमद्भगवद्गीता में इस बात को समझाते हुए योगनिष्ठ श्रीकृष्ण ने कहा है कि -
व्यवसायात्मिकता बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन l
बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवासायिनाम् ll
- श्रीमद्भगवद्गीता - २- ४१
अर्थात - हे कुरुनन्दन (अर्जुन) ! निश्चयात्मक बुद्धि एक ही होती है और अनिश्चयात्मक बुद्धियाँ कई होती हैंl इसकी कई शाखाएँ होती हैं अर्थात यह बहुत भेदों वाली होती हैl
अनिश्चयात्मक बुद्धि को अस्थिर बुद्धि कहा जाता हैl अस्थिर बुद्धि वालों के लक्षण का वर्णन करते हुए श्रीमद्भगवद्गीता के दूसरे अध्याय के ही अगले श्लोकों में कहा गया है -
यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चितः ।
वेदवादरताः पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः ॥
कामात्मानः स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रदाम् ।
क्रियाविशेषबहुलां भोगैश्वर्यगतिं प्रति ॥
भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम् ।
व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते ॥
- श्रीमद्भगवद्गीता -२ - ४२ , ४३, ४४
अर्थात - हे पार्थ ! कामनाओं से युक्त ज्ञान की (डींग) हाँकने वाले अविवेकी जन स्वर्ग को ही परम श्रेष्ठ मानने वाले,  इस जन्म में ही कर्मफल को मानने वाले, भोग तथा ऐश्वर्य को प्राप्त करने के लिये बहुत सी ऊँच नीच की सुन्दर लुभायमान बात करते हैं।
उनकी (ऐसे पुरुषों) की वाणी चित्त को हरने वाली (लुभानेवाली) भोग तथा ऐश्वर्य में आसक्ति करने वाली होती है।ऐसे लोगों के अन्तःकरण में निश्चयात्मक बुद्धि नहीं होती।
अभिप्राय यह है कि जो जन भोग और ऐश्वर्य में लीन रहते हैं उनकी बुद्धि अस्थिर रहती हैl
श्लोक २- ४२ में वेदवादरताः शब्द का अभिप्राय सांसारिक ज्ञान से है न कि ऋक्, यजुः , सामादि वेदों से। वस्तुतः वेद में कर्मकाण्ड कहीं नहीं है। कर्मकाण्ड ब्राह्मण-ग्रन्थों में हैं और ब्राह्मण-ग्रन्थ वेद नहीं हैं। साथ ही वेद का अर्थ ज्ञान भी है।इसलिए वेदवादरताः शब्द का अर्थ सांसारिक ज्ञान ही यहाँ उपयुक्त और ठीक होगा। अतः वेदवादरताः का अर्थ है ज्ञानवादी जो संसार में रत्त हैं। जैसे वर्तमान युग के सायंसदान अर्थात वैज्ञानिक। सांसारिक ज्ञान में रत्त वे वैज्ञानिक परमात्मा के अस्तित्व को कहीं नहीं देखते। वे पुनर्जन्म को भी नहीं मानते। ये बातें प्रत्यक्ष में नहीं आतीं। इस कारण वे जन्म-मरणपर्यन्त ही सब जीवनलीला और इसके फल को समझते हैं।ये लोग कामनाओं से युक्त अव्यवसायात्मिक बुद्धि रखते हैं, जो स्थिर नहीं और अनेक दिशाओं में जाती हैं।

ध्यातव्य है कि यहाँ वेद का अभिप्राय ऋक्, यजुः, साम इत्यादि नहीं हैं। वेद तो जीवात्मा और कर्मफल को मानते हैं।इस बात की स्पष्ट पुष्टि ऋग्वेद के निम्न वेदमन्त्रों से हो जाती है -
द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परि षस्वजाते ।
तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभि चाकशीति ॥
यत्रा सुपर्णा अमृतस्य भागमनिमेषं विदथाभिस्वरन्ति ।
इनो विश्वस्य भुवनस्य गोपाः स मा धीरः पाकमत्रा विवेश ॥
यस्मिन्वृक्षे मध्वदः सुपर्णा निविशन्ते सुवते चाधि विश्वे ।
तस्येदाहुः पिप्पलं स्वाद्वग्रे तन्नोन्नशद्यः पितरं न वेद ॥
- ऋग्वेद - १ - १६४ - २० , २१ , २२
अर्थात - प्रकृत्ति रुपी बृक्ष पर दो सुपर्ण (आत्म-तत्व) हैं। दोनों सजातीय और सखा हैं। इसमें से एक (आत्म-तत्व) इस बृक्ष के फल स्वाद से खाता है और दूसरा आत्मतत्व केवल देखता है।
जो सुपर्ण (आत्म-तत्व) ज्ञान से युक्त होकर  निरन्तर मोक्ष का अधिकार पाना चाहता है, वह भुवनों के रक्षक परमात्मा से कहता है कि मुझ बुद्धिमान और ज्ञान से परिपक्व को मुक्त करो ।
और बृक्ष के समस्त फलों का भोग जो आत्म- तत्व स्वाद से करता है और सन्तान उत्पन्न करता है, कहा जाता है, उसको उस (परमात्मा) का ज्ञान नहीं होता।
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि श्लोक२- ४२ में वेदवादरताः का अभिप्राय है विज्ञानवादी अर्थात वर्तमान के वैज्ञानिक जो संसार में रत हैं।
वैदिक ग्रन्थों के अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि प्रकृति की साम्यावस्था जब भंग होती है तो जगत की रचना होती है। साम्यावस्था भंग होने का अर्थ ही है जो पहले शान्त थे, साम्यावस्था भंग होने पर वे तीनों गुण बाहर निकलकर अपना प्रभाव चारों ओर फ़ैलाने लगते हैं। इसी कारण जगत के सब पदार्थ त्रिगुणात्मक कहलाते हैं।
कहा गया है - त्रैगुण्यविषया वेदा । ध्यातव्य है यहाँ भी वेदा का अभिप्राय ऋक्, यजुः, साम इत्यादि वेदों से नहीं है। इसका अर्थ है जानने वाले अर्थात वैज्ञानिक। त्रिगुणविषय का अभिप्राय है कि प्रकृति के परमाणुओं के भीतर जो तीन गुणों वाली शक्ति है, वह प्रकट होकर चराचर जगत के सब पदार्थों को त्रिगुणात्मक बना देती है। उन पदार्थों के इन गुणों के कारण उनको त्रिगुणात्मक कहा गया है। जो लोग इन पदार्थों के स्वादों के मोह में फंस जाते हैं, वे त्रिगुणविषय वेदा माने जाते हैं अर्थात तीन गुणों के मोह में फँसे हुए इन गुणों को जानने वाले कहे जाते हैं। श्रीमद्भगवद्गीता के दूसरे अध्याय के श्लोक २-४५ में योगनिष्ठ श्रीकृष्ण अर्जुन को समझाते हुए कहते हैं इन गुणों से पृथक होज, द्वन्द्वों से रहित हो जा और योगक्षेम से युक्त होकर आत्मवान बन अर्थात आत्मा में विश्वास रख।
अगले श्लोक २-४६ में कहा है -
सब ओर से परिपूर्ण (किनारों तक) जल से भरे हुए सरोवर की प्राप्ति पर जो प्रयोजन एक टोंबड़ी (लेंवड़ा गड्ढा /किसी गड्ढे में भरे हुए जल) से हो सकता है, वही प्रयोजन विशाल ब्रह्म का ज्ञान रखने वाले का इस जगत का ज्ञान रखने वालों से है।
चारों ओर से भरे सरोवर की तुलना पूर्ण व्योम,जहाँ तक भी यह है, से की गई है अर्थात सम्पूर्ण जगत जिसमें हमारी पृथ्वी है।इस सौरमण्डल का ज्ञान वैज्ञानिकों को है। हमारा सौरमण्डल आकाश-गंगा से कई गुना छोटा है। उस सौरमण्डल में हमारी पृथ्वी ऐसी है जैसी प्रशान्त महासागर में टेनिस अथवा क्रिकेट की गेंद। इस पृथ्वी के ज्ञानको विज्ञान कहते हैं। व्योम तो असीम है। उसमें हमारी आकाश-गंगा की भान्ति कई गंगाएँ हैं। अब तो लगभग दो सौ आकाश गंगाएँ देखी  जा चुकी हैं और व्योम तो उससे भी बहुत बड़ा है। वह व्योम ही परम ब्रह्म कहाता है। श्वेताश्वेतर उपनिषद में कहा है -
सर्वाजीवे सर्वसंस्थे बृहन्ते तस्मिन्हंसो भ्राम्यते ब्रह्मचक्रे ।
पृथगात्मानं प्रेरितारं च मत्वा जुष्टस्ततस्तेनामृतत्वमेति ॥

उद्गीतमेतत्परमं तु ब्रह्म तस्मिंस्त्रयं सुप्रतिष्ठाऽक्षरं च ।
अत्रान्तरं ब्रह्मविदो विदित्वा लीना ब्रह्मणि तत्परा योनिमुक्ताः ॥
- श्वेताश्वेतर उपनिषद - १- ६, ७
अर्थात - इस बड़े ब्रह्मचक्र में जीव फँसे हुए हैं जैसे भँवर में हंस भ्रमित हुआ रहता है।तब अपने से पृथक एक आत्मा (परमतत्व) को मानता है।जब जीव उस(परमात्मा) संयुक्त हो जाता है तब अमरत्व को प्राप्त कर लेता है।
यह जो ऊपर कहा है, वह परम ब्रह्म है।उसमें तीन अक्षर प्रतिष्ठित हैं।इन तीन अक्षरों के अतिरिक्त वे भी हैं जो ब्रह्मज्ञानी कहे जाते हैं और योनि (जन्म-मरण) मुक्त हैं, वे ब्रह्मलीन कहे जाते हैं।
अतः यह विशाल सागर परम ब्रह्म है,यह व्योम है।उसमें हमारी पृथ्वी जिसका ज्ञान (वैज्ञनिक जो इस संसार को ही पुष्पितां वाचं कहते हैं) उस गड्ढे के जल के ज्ञान के तुल्य है।
बुद्धि के सहाय से किया गया कर्म ही बुद्धियोगात् कहा जाता है और बुद्धि से दूर होकर किया गया कर्म अतितुच्छ होता है। श्रीमदभगवद्गीता के दूसरे अध्याय के अनुसार बुद्धि निश्चयात्मक होनी चाहिए, भटकने वाली न हो। सांसारिक ज्ञान सम्पूर्ण ब्रह्म(व्योम) ज्ञान की तुलना में इसी प्रकार है जैसे सागर की तुलना में लेंवडा गड्ढा (जल की एक टोंबड़ी)।अनिश्चयात्मक बूढी में कारण जगत के स्वाद हैं। वे लोग जो इस जीवन को ही सब कुछ मानते हैं, वे ही इस संसार के प्रलोभनों में फँसे हुए भटकने वाली बुद्धि पा जाते हैं। कर्म करने के लिये ही मनुष्य जीवन मिलता है। कर्म करना मनुष्य का अधिकार है परन्तु फल की इच्छा नहीं करनी चाहिए। यह उसके अधिकार में नहीं है। फल कैसे मिलता है, यह एक विषम समस्या है। फल की इच्छा कैसे छोड़ी जा सकती है? उसके लिये कहा है कि कर्म करते समय विचारकर कर्म करो। विचारित कर्म ही बुद्धियोगात है।

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