Thursday, December 4, 2014

जनजातीय नृत्य पर पाश्चात्य प्रभाव - अशोक “प्रवृद्ध”

राँची , झारखण्ड से प्रकाशित दैनिक समाचार पत्र राष्ट्रीय खबर में दिनांक - ३ / १२ / २०१४ तथा दिनांक - ४/ १२ / २०१४ को सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित लेख - जनजातीय नृत्य पर पाश्चात्य प्रभाव



 जनजातीय नृत्य पर पाश्चात्य प्रभाव 
- अशोक “प्रवृद्ध”

गीत - संगीत की कलाएं जीवन में रस उत्पन्न करने के लिए आवश्यक होती हैं l इसका आकर्षण जानवर तक को अपनी ओर खिंच लेता है l वंशी की सुमधुर सुरीली आवाज सुनकर गाय , बैल तथा गोपियों का मुरली मनोहर श्रीकृष्ण की ओर बरबस खींचे चले आना , इसका सख्त उदाहरण है l यही हाल  मधुर गानों का भी है . अपनी सुध - बुध खोकर मानव इसके वश में हो जाता है l अगर गीत - संगीत के साथ नृत्य का भी समावेश हो , तो फिर कहने ही क्या ?
समस्त विश्व के साथ हमारे देश भारतवर्ष के अन्य प्रदेशों की भान्तिही झारखण्ड और सीमावर्ती प्रदेशों के विभिन्न क्षेत्रों में रहने वाली बनवासी जनजातियाँभी अपने गीत - संगीत एवं नृत्य की चिरंतन - परम्परा पर गर्व कर सकती है , और इसमें कोई अतिशयोक्ति भी नहीं ही l पुरातन काल से ही नृत्य वनजातीय अथवा जनजातीय  परम्पराओं में आदिवासियों की आदिवासियों की संस्कृति तथा उनके जीवन का एक आवश्यक अंग रहा है l कहा जाता है कि , एक वनजाति जो नाचना जानती है , कभी मर नहीं सकती l इसके मूल में यही रहा है कि व्यक्ति और जाति के अस्तित्व की रक्षा ही इसका कार्य है l नृत्य आदिवासी - संस्कृति का एक अविभाज्य अंग है l वनजाति अर्थात आदिवासी समाज में नृत्य की प्रधानता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उनके जन्म से लेकर मृत्यु तक प्रत्येक मौसम में , जीवन के प्रत्येक क्षण नृत्य से ओत - प्रोत होते हैं l प्रसन्नता , उदासी , जुदाई , पूजा ,आदि प्रत्येक अवसरों पर जनजातीय समाज में गीत , संगीत , नृत्य का प्रचलन है l ये नृत्य जनजातियों के प्रायः हरेक पक्षों , यथा , सामाजिक , धार्मिक , आर्थिक एवं राजनितिक आदि में उद्भासित होते रहते हैं और इस तरह उनकी सांस्कृतिक विरासत उनके नृत्यों की लंबी परम्परा में अक्षुण बनी रहती है l आदिवासी समाज और संस्कृति यथार्थ रूप में जानने के लिए उनके जीवन के अविभाज्य अंग के रूप में सम्मिलित उनकी नृत्य – परम्परा का अध्ययन समीचीन जान पड़ता है l

गीत - संगीत एवं नृत्यप्रियता वनवासी आदिवासियों का एक स्वाभाविक गुण है जो उतने ही प्राचीन हैं जितना कि  मानव समाज तथा यह उसी तरह विस्तृत है जिस तरह उनकी जाति l आधुनिक युग के वनवासी जनजातीय समुदायों में भी नृत्य की यह प्राचीन परम्परा बड़े ही विस्तृत रूप में देखने को मिलती है ,फिर भी समय - समय पर इनमें गीत - संगीत - नृत्य को कर्णप्रिय , आकर्षक एवं मनोहारी बनाने के लिए अथवा अन्यान्य प्रेरणाओं के आधार पर जनजातियों के संगीत - नृत्य की भावनाओं में तीव्र बदलाव देखने को मिला है तथा ये पाश्चात्य एवं लोक धुनों से , संगीतों से लबरेज हो रहे हैं l जनजातीय लोग नृत्य को अत्यन्त महत्व देते हैं तथा प्रतिदिन रात्रि को स्त्री - पुरूष गाँव के अखाड़े में एकत्रित होते हैं और नाचते - गाते हैं l ऐसा प्रायः प्रत्येक रात्रि को होता है .पर्व - त्योहारों एवं अन्य अवसरों पर जनजातियों का यह मस्ती भरा आलम और भी कई दिनों तक चलता रहता है l लडकियाँ और महिलायें भी इस नृत्य में बढ़ - चढ कर भाग लेती हैं और पूरा अखाड़ा स्त्री - पुरूष और युवक - युवतियों से सहसा भर उठता है l

वनजातीय आदिवासी नृत्य - संगीत स्वर एवं पद की स्वाभाविक गतियों पर आधारित होते हैं l इन संगीत - नृत्यों के पीछे एक शक्तिशाली संवेगात्मक भाव होता है l प्रकृति की सुरम्य वादियों से चित्रित वातावरण एवं जनजातीय जीवन की सरलता के परिणामस्वरूप इन संगीत एवं नृत्यों के शक्तिशाली संवेगात्मक भाव और भी उद्दीप्त हो उठते हैं l जनजातियों के गाँवों में  धुमकुरिया अर्थात युवा गृह और अखाड़े ये दो संस्थाएं महत्वपूर्ण होती हैं , जिनमें आदिवासी नृत्य शैली व गीत- संगीत के उद्भव - विकास , पोषण एवं परस्पर सम्बद्धता बनाये रखने के लिए अनेक कार्य संचालित किये जाते हैं l युवा गृह जनजातियों के सामाजिक जीवन का एक प्रमुख नाग है , जिसका प्रचलन प्रायः सभी जनजातियों में देखने को मिलता है l विभिन्न जनजातियों में इस संस्था का अलग - अलग नाम है l उराँव जनजाति में युवा गृह को कुँवारों का घर , कुडुख भाषा में जोख - अरपा , मुण्डा तथा हो में गतिओरा अथवा गितिओरा और खड़िया , बिरहोर और एवं तीनों प्रकार के नागाओं में भी युवा गृह के अपने प्रचलित नाम हैं l अनेक जनजातियों के बस्तियों में लड़के एवं लड़कियों का युवा गृह अलग - अलग होता है l लड़कियों के युवा गृह की देख – बहाल वृद्धा अथवा विधवाएं करती हैं l जनजातियों के अनेक परम्परागत पर्व - त्योहार , उत्सव - समारोह नृत्य के साथ इस प्रकार सम्बंधित हो चुके हैं कि उन्हें एक – दूसरे से अलग कर इनका लुत्फ़ उठा पाना , मजा ले पाना अत्यन्त कठिन है l वस्तुतः जनजातियों के उत्सव एवं समारोह इनसे सम्बंधित नृत्य के ही परिप्रेख्य में समझे जा सकते हैं l चावल से निर्मित एक प्रकार का परम्परागत नशीला पेय पदार्थ हड़िया और अविवाहित - विवाहित वनवासी आदिवासी युवक - युवतियों का उन्मुक्त मिलन के साथ इनके नृत्य ,गीत तथा  संगीत के वाद्य में अतिरिक्त उत्साह , मस्ती के आलम तथा उमंग को दुगुने जोश से भर देते हैं l

समस्त जनजातीय समुदाय की भान्ति ही झारखण्ड और इसके सीमावर्ती प्रान्तों यथा , छतीसगढ़ , मध्यप्रदेश और उडीसा आदि प्रान्तों में  निवास करने वाली एक प्रमुख जनजाति उराँव जनजाति के लोग भी नृत्य के साथ गीत - संगीत को काफी महत्व देते हैं तथा नृत्य इनके जीवन का एक प्रमुख साधन है l दिनभर की कठोर हाड़ –तोड़ परिश्रम के पश्चात प्रतिदिन रात्रि को अखाड़े में उराँव नाचते - गाते हैं l पर्व – त्योहारों के अवसरों पर इनका यह नाच – गान का सिलसिला कई दिनों तक चलता ही रहता है l विभिन्न वय के युवक – युवती , स्त्री – पुरूष पंक्तियों में पृथक – पृथक नृत्य करते हैं तथा भान्ति – भान्ति के गाने गाते हैं l मनोरंजन के साथ ही उराँव लोग नाचते समय वर्षा के लिए , बीमारी से मुक्ति , पशुओं की रक्षा तथा कृषि की उन्नति के लिए भी प्रार्थना भी करते हैं l उराँव प्रत्येक पर्व – त्योहार पर अलग – अलग प्रकार का नृत्य तथा तरह – तरह के गाने गाते हैं l उराँव के साथ ही अन्य जनजाति में भी प्रत्येक पर्व- त्योहार पर इनके अलग - अलग नृत्य तथा तरह - तरह के गाने हैं l मुण्डा , खड़िया , हो , बिरहोर एवं संथाली आदि जनजातियों में भी पर्व - त्योहार पर किस्म - किस्म के गाने , वाद्य - यंत्रों की धमधमाती गूंज के मध्य भान्ति - भान्ति के नृत्य होते हैं l प्रायः सभी जनजातियों में वर्षा एवं कृषि की उन्नत्ति , बीमारियों से रक्षा आदिके लिए प्रार्थना करने की परिपाटी है l इस प्रकार नृत्य जनजातीय संस्कृति का एक अविभाज्य अंग है तथा यह गाँव की कुछ संस्थाओं और रीति - रिवाजों से सम्बंधित है l
उराँव गाँवों की संस्था धुमकुरिया एवं अखाड़ा तथा उनके रीति – रिवाज एवं परम्पराओं के साथ उराँव नृत्य इस भान्ति सम्बंधित हो चुका है कि इनमे किसी भी प्रकार का तनिक भी परिवर्तन उराँवों के नृत्य शैली में व्यापक अन्तर लाने में समर्थ होता है l हालांकि आज धुमकुरिया एवं अखाड़ा उराँव बस्तितों से लुप्त होने लगे हैं , तथापि आज भी जिन उराँव बस्तियों में धुमकुरिया एवं अखाड़े की परम्परा बची हुई है , वहाँ के उराँव अपने परम्परागत उत्सवों – पर्वों में शुद्ध आत्मीय भाव सीभाग लेते हैं , युवक – युवतियों के नृत्य हेतु मिलन के लिए कोई नियंत्रण नहीं है . जिसके कारण वहाँ उराँव नृत्य – गीत – संगीतकी अखण्डता तथा शुद्धता पर्याप्त सुरक्षित रह सकी है l कतिपय उराँव इसमें जातीय पेय हड़िया पर किसी प्रकार का बंधन नहीं होने का योगदान भी मानते हैं l उराँव गाँवों में मौसमी तथा धार्मिक और राजनितिक अवसरों के नृत्य सामाजिक परिवेश में बड़े ही जोश – खरोश और धूम धाम के साथ आयोजित किये जाते हैं l गाँव के धुमकुरिया में रहने वाले लड़के – लड़कियों के लिए तो यह नित्यप्रति का दैनिक दिनचर्या ही रहता है , जहाँ वे दिनभर की परिश्रम के पश्चत सायंकाल में अखाड़ा में एकत्रित हो देर रात्रि तक नृत्य की मदिरा में डूबे रहते हैं l सरहुल , करमा , जतरा , हरबोरी , जितिया  आदि उत्सावों , पर्व – त्योहारों , विवाह और शिकार आदि शुभ अवसरों के साथ ही फसलों की बोआई एवं कटनी एवं अन्यान्य कृषि – कर्मों के अवसरों पर सभी ग्रामीण मिल - जुल खाते - पीते तथा रत – दिन नाचते – गाते हैं l झारखण्ड के छोटानागपुर के गाँवों में ऐसे नृत्य को खेल कहा जाता है l ऐसा खेल वयस्कों के लिए विशेष तथा बूढ़े – बुढियों के लिए सामान्य महत्व का होता है l

अपने बाल्यकाल से ही अपनी माँ अथवा बहन के साथ नृत्य सीखता बालक पूर्ण जवान होने तक नृत्य की बारीकियों से परिचित हो जाता है l वैसे भी तीन – चार वर्ष के उरांव तथा अन्यान्य जनजातियों के बच्चों के पैर नृत्य के अवसरों पर गीत – संगीत के ताल से तालबद्ध होकर स्वयं गतिमान हो उठते है क्योंकि ये बच्चे – बच्चियां धुमकुरिया में दीक्षा लेते हैं l वस्तुतः धुमकुरिया उराँव , मुण्डा , खडिया एवं अन्य जनजातियों के गीतों , वाद्यों एवं नृत्य के विकास एवं शिक्षा का केन्द्र वह संस्था है , जहाँ जनजातियों की इन परम्परागत कलाओं का विकास के साथ ही आदान – प्रदान भी होता है l हालाँकि अन्य जनजातियों की भान्ति ही उराँव गाँवों से आज धुमकुरिया का अस्तित्व समाप्त हो चुका है फिर भी छोटानागपुर के कतिपय क्षेत्रों में धुमकुरिया आज भी देखने को मिलता है l हाँ , अखाड़ा आज भी उराँव के साथ ही सभी जनजातियों की प्रायः सभी जनजातियों में पाया जाता है l सरकार एवं स्थानीय प्रशासन ने भी जनजातीय बस्तियों में अखाड़ा के निर्माण में काफी मदद की है l

उराँव लोगों के लिए अखाड़े का काफी महत्व है क्योंकि अखाड़ा ही वह जगह है जहाँ ये एकत्रित होकर नाचते गाते हैं l हालाँकि धुमकुरिया के अभाव में अखाड़ा का अस्तित्व भी कमजोर पड़ जाता है फिर भी अखाड़ा का अपना एक लग महत्व है l जहाँ धुमकुरिया के अभाव में गाँव के उत्साही युवक - युवतियाँ उराँव नृत्य - गीत - संगीत को अपनी संस्कृति के अनुरूप अक्षुण बनाये रखने में संलग्न रहते है l हालाँकि झारखण्ड के उराँव जनजाति के लोग बेहतर भविष्य और रोजगार की तलाश में अन्य प्रदेशों की नगरों की ओर पलायन कर रहे हैं , परिणामस्वरूप उराँव बस्तियाँ वीरान हो रही हैं l रोजी -रोटी से निरन्तर जूझ रहे उराँव कृषि - कार्य से अवकाश के दिनों में रोजगार की तलाश में अन्य प्रदेशों की ओर रवाना हो जाते हैं l इस अस्थायी पुनर्वास - पलायन के कारण दिनानुदिन उराँव नृत्यों के साथ ही गीत - संगीत के स्तर में ह्रास होता जा रहा है l यही स्थिति मुण्डा , खड़िया , हो आदि जनजातियों के नृत्य - गीत - संगीत की भी है l

 उराँव जनजाति के साथ ही समस्त जनजातियों की परम्परागत नृत्य शैली गीत - संगीत में बदलाव का एक प्रमुख कारण धर्म - परिवर्तन भी है l धर्म – परिवर्तन नहीं करने वाले श्मशार उराँव जनजाति के लोगों में भी

धर्म - परिवर्तन करने वाले उराँव अपने परम्परागत नृत्य शैली और गीत - संगीत को त्याग कर ईसा मसीह के गुण - गान करने और पाश्चात्य गीत -संगीत के ईसा भजन सुनने - गाने लग जाते है l धर्म - परिवर्तन नहीं करने वाले उराँव और अन्य जनजातियों के लोगों में भी आधुनिक पाश्चात्य शिक्षा - पद्धति के कारण नृत्य – गीत – संगीत के प्रति एक नये पाश्चात्य दृष्टिकोण का निरन्तर विकास हो रहा है , जिससे बहुत अंशों में उराँव गाँवों की चिरकालीन परम्परागत नृत्य शैली प्रभावित होती जा रही है l विगत सदी के अंतिम वर्षों में योजना आयोग के द्वारा मुण्डा और उराँव जनजाति की संस्कृति में परिवर्तन पर किये गए एक अध्ययन  के क्रम में भी इस तथ्य की पुष्टि हो चुकी है l कतिपय विद्वान धुमकुरिया आदि संस्थाओं को यौन - विकृति एवं अनैतिकता का केन्द्र मानते हैं और कहते हैं कि "दरअसल अखाड़ा और धुमकुरिया अब पारंपरिक सांस्कृतिक संस्था नहीं रहीं l इसने जनजातीय समाज की शुद्धता एवं पवित्रता को समाप्त करने और चोट पहुँचाने में मदद की है l अंग्रेजी शिक्षा नीति के परिणामस्वरूप हमारे धुमकुरिया आदि जनजातीय संस्थाओं में भी स्वतंत्र रहने वालों विशेषकर लड़कियों की पवित्रता नष्ट कर दी है और लड़कों को भी चरित्र - भ्रष्ट कर दिया है l धुमकुरिया में साथ रहने के कारण इन पर पारिवारिक - सामाजिक नियंत्रण नहीं रखा जा सका तथा रक्त - शुद्धता भी बची नहीं रह सकी l सगोत्र अथवा गोत्र के अंदर ही विवाह इसी बात का द्योत्तक है l"
आधुनिक शिक्षा के परिणामस्वरूप उरांव एवं अन्य जनजातियों के पारम्परिक मूल्यों में अंतर आ रही है तथा नैतिकता के प्रति उनकी जन भावनाओं में व्यापक बदलाव आ रहा है और इस प्रकार उराँव अथवा ने वनवासी आदिवसी बस्तियों के अखाड़े अथवा धुमकुरिया को एक सांस्कृतिक एवं शैक्षणिक कार्य- कलापों की परम्परागत केन्द्र के बजाय व्यभिचार तथा पापों का अड्डा समझा जाने लगा है l कतिपय स्वार्थी और चरित्रहीन युवक - युवतियों के ऐसे कुत्सित प्रयास के परिणामस्वरूप परम्परागत जनजातीय बस्तियों में में भी उनकी सांस्कृतिक अस्मिता को चोट पहुँची है , तथा उनके सामूहिक सामाजिक गतिविधियों के विकास में बाधा उत्पन्न हुई है l जिसके कारण जनजातियों के परम्परागत नृत्य शैली के साथ गीत - संगीत भी पर्याप्त शिक्षा और आर्थिक तंगी के परिणामस्वरूप प्रभावित हुई है l उराँव जनजाति के साथ अन्यान्य जनजातियों के पर्व - त्योहार , उत्सव व समारोहों आदि पर नृत्य  शैली एवं गीत - संगीत में सामान्यतः अधिक प्रभाव नहीं पड़ा है फिर भी इनके परम्परागत नित्यप्रति के नृत्य - गीत आदि बिलकुल ही कमजोर स्थिति तक पहुँच चुके हैं , तथा इनके परम्परागत शैलियों में काफी ह्रास हुआ है l इस ह्रास का प्रमुख कारण ईसाईयत का प्रचार तथा शहरी जीवन का प्रभाव के कारण पाश्चात्यकरण भी है l.
अंग्रेजों के शासन काल में ही झारखण्ड के छोटानागपुर इलाके सुदूर जंगली - पहाड़वर्ती क्षेत्रों में ईसाईयत के प्रचार - प्रसार के पश्चात उराँव नृत्य शैली के गीत एवं संगीत के वाद्य - यंत्रों में व्यापक परिवर्तन हुए हैं l ईसाईयत के प्रचार वाले गाँवों उराँव एवं अन्य जनजातीय बस्तियों में धुमकुरिया तथा अखाड़ा का अस्तित्व लुप्तप्राय हो गया है तथा उनका स्थान मिटटी मिटटी अथवा सीमेंट - गारे - से बने कच्चे - पक्के भवन वाले गिरजाघरों ने ले लिया l ऐसे गाँवों में नृत्य के लिए अखाड़ा भी नहीं है , लेकिन गाँवों के मध्य अथवा सर्वगामी स्थानों पर खुले स्थान आज भी देखने को मिलते हैं , जिन स्थानों का उपयोग यदा - कदा ही  विवाह समारोह आदि के अवसरों पर नृत्य के लिए किया जाता है l ऐसे गाँवों के परंपरागत उत्सवों का जगह ईसाई उत्सवों क्रिसमस , ईस्टर , स्वर्गारोहण , ख्रीष्टदेव पर्व तथा अन्य उत्सवों ने ले लिया है l ऐसे गाँवों के लोग अब सरहुल , करमा , जितिया तथा अन्य सरना पर्वों - उत्सवों का आयोजन करना भी अपनी शान के खिलाफ समझते हैं l अब छोटानागपुर सहित सम्पूर्ण झारखण्ड के ऐसे जनजातीय उत्सवों के आयोजनों में भी राजनितिक रंग गहराने लगा है .जिसके कारण इन अवसरों पर क्रिश्चियन प्रतिरूप अर्थात ईसाईयत मॉडल की ही झाँकी देखने को मिलती है l उराँव नृत्य शैली को प्रभावित करने वाले प्रमुख कारकों में ईसाईयत के प्रचार के कारण धुमकुरिया तथा अखाड़ा जैसी संस्थाओं का विनाश , परम्परागत पर्व -त्योहारों - उत्सवों के सांस्कृतिक ह्रास तथा लूथेरान मिशन में नशीले पेय यहाँ तक कि हड़िया पर भी पूर्ण प्रतिबन्ध तथा कैथोलिक मिशनों में अल्प छूट और शिक्षा के कारण आये चरित्रिक ह्रास को देखते हुए युवक - युवतियों के उन्मुक्त मिलन पर प्रतिबन्ध आदि हैं l जिसके कारण उराँव एवं अन्य जनजातियों की पारंपरिक नृत्य शैली पर काफी गहरा प्रभाव पड़ा है l कई ईसाई गाँवों में ईसाई धर्म संस्थाओं द्वारा सिर्फ इससे पर्व उत्सवोंके अवसरों पर ही नाचने की छूट दी जाती है l ऐसा गुमला , सिमडेगा , राँची जिले के साथ ही झारखण्ड के कई ईसाई बहुल क्षेत्रों में देखने को मिलता है कि शिक्षित युवक युवक तथा नौकरी पेशे वाले आदिवासी नृत्य आदि समारोहों में भाग नहीं लेते l ऐसे गाँवों के क्रिसमस , ईस्टर आदि अवसरों पर भी आयोजित होने वाले नृत्य आयोजनों में उराँव जनजाति नृत्य के कलात्मक तथा स्वभावात्मिकता का अभाव ही देखने को मिलता है l विद्वानों के अनुसार , अभ्यास की कमी , परम्परागत पद , स्वर , योजना , ताल की शैलियों पर नवीन पद शैलियों का स्थानांतरण , पुराने पारम्परिक गीतों के स्थान पर नई गीतों की योजना और परम्परागत वाद्य - यंत्रोंके स्थान पर नए वाद्य - यंत्रों को अपनाए जाने के परिणामस्वरूप इन सबों ने मिल - जुलकर उराँव एवं अन्य जनजातीय नृत्य शैली को तितर - बितर कर दिया है तथा नित्यप्रति के साथ ही उत्सवों एवं सामाजिक अवसरों पर परम्परागत गीतों के स्थान पर बाइबिल कापाथ अथवा प्रार्थना ने ले लिया है l आज जनजातीय लोग अपने पारम्परिक विश्वासों को भूलकर कुडुख तथा सदानी , नागपुरी बोली निर्मित बाइबिल के भजन के बोलों से ही प्रातः प्रभु - स्मरण किया करते हैं तथा नृत्य उनके लिए महज एक खेल की वस्तु बनकर रह गई है l

गाँवों के साथ ही शहरी बस्तियों में निवास करने वाली उराँव एवं अन्यान्य जनजातीय लोगों के द्वारा भी परम्परागत नृत्यों का विशेष पर्व - त्योहारों के माध्यम से रक्षित किए जाने प्रयत्न किया जा रहा है , फिर भी जनजातियों के नृत्य की पदक्रम शैली , संगीत तथा वाद्य - यंत्रों - शैलियों में में काफी ह्रास हुआ है तथा हो रहा है l कला के रूप में यह ह्रास उनके आर्थिक व्यवसाय , शैक्षणिक योग्यता तथा शहरी जीवन में परिवर्तन के फलस्वरूप हुआ l गाँवों अथवा  शहरों में शिक्षित अथवा नौकरी शुदा लोग इन पारम्परिक नृत्यों में भाग नहीं लेते l ऐसे अवसरों पर कृषकों , श्रमिकों अथवा अन्यान्य घरेलू काम - धंधों में लगे आदिवासी मुख्य रूप से हाथ बंटाते हैं तथा बाकी सब मात्र दर्शक ही बने रहते हैं l साधारण शिक्षित अच्छे आर्थिक स्थितिवाले , धार्मिक चेतना वाले , जनजातीय ईसाई इनकी आवश्यकता किसी धार्मिक अवसरों पर भी नहीं मानतेl

इस प्रकार जनजातीय संस्कृति का एक अविभाज्य अंग नृत्य गाँव की कतिपय संस्थाओं तथा रीति - रिवाजों से सम्बंधित है , जिनमें समय के साथ ही बदलाव दृष्टिगोचर हो रहा है , जिनका शास्त्रीय दृष्टिकोण से नृत्य के ह्रास के परिप्रेक्ष्य में अध्ययन - मनन आवश्यक है l तकनीकी दृष्टिकोण से नृत्य में परिवर्तन की प्रकृति तथा दुरी को समझना आवश्यक है जिससे आदिवासियों के परम्परागत नृत्य शैली एवं गीत - संगीत को लुप्त होने और मूल से बदलाव को रोका जा सके l नृत्य सांस्कृतिक संवेग और आवश्यकताओं की अभिव्यक्ति का संकेत है l इस दृष्टि से वनवासी आदिवासी नृत्य के विभिन्न दृष्टिकोणों से समग्र अध्ययन की आवश्यकता है l इसके लिए नृतत्वशास्त्रियीं , कलाकारों एवं नृत्य विशेषज्ञों के द्वारा मिल - जुलकर सम्मिलित प्रयास के बिना किसी सार्थक पहल और कारर्वाई की उम्मीद नहीं की जा सकती l  


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वेब समाचार आर्यावर्त में दिनांक - १८ मई २०१५ को प्रकाशित आलेख - झारखण्ड के जनजातीय नृत्य पर पाश्चात्य प्रभाव - अशोक "प्रवृद्ध" -

http://www.liveaaryaavart.com/2015/05/jharkhand-tribal-dance.html

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समाचार एजेंसी वेबवार्ता में १९ मई २०१५ को  प्रकाशित आलेख - झारखण्ड के जनजातीय नृत्य पर पाश्चात्य प्रभाव - अशोक "प्रवृद्ध" -

http://www.webvarta.com/script_detail.php?script_id=23332

1 comment:

  1. आपके विचार बहुत गम्भीर और तर्कपूर्ण लगे। लिखते रहें। इसके अलावा आपके लेखों में प्रयुक्त पूर्णविराम (डण्डे) के बारे में आपका ध्यान खींचना चाहूँगा। आप पूर्णविराम के लिये '|' (पाइप) प्रयोग करते हैं जबकि देवनागरी यूनिकोड में पूर्णविराम के लिये यह चिह्न है- '।' । आप देखेंगे कि देवनागरी का पूर्ण विराम 'पाइप' चिह्न से थोड़ा छोटा है। हिन्दी लिखने के लिये आप कौन सी विधि या सॉफ्टवेयर उपयोग करते हैं उसमें पता करिये कि पूर्ण विराम कैसे प्राप्त करेंगे।

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