Monday, December 22, 2014

सुविधा के लिये बदल दिया इतिहास - अशोक “प्रवृद्ध”

राँची , झारखण्ड से प्रकाशित होने वाली दैनिक समाचार पत्र राष्ट्रीय खबर के सम्पादकीय पृष्ठ पर दिनांक - २२ / १२ / २०१४ को प्रकाशित लेख - सुविधा के लिये बदल दिया इतिहास

सुविधा के लिये बदल दिया इतिहास 
- अशोक “प्रवृद्ध”
मन,बुद्धि और आत्मा से सम्बंधित शिक्षा राज्य का विषय नहीं 

परमात्मा प्रदत्त वैदिक ग्रन्थों के अध्ययन से इस सत्य का सत्यापन होता है कि शिक्षा राज्य का विषय नहीं होना चाहिए और राज्य की सहायता व सहयोग से पृथक होकर ही व्यक्ति में ज्ञानार्जन की प्रवृत्ति होना ही व्यक्ति,समाज और राष्ट्र के लिये श्रेयस्कर होता हैlव्यकियों विशेषकर जाति अर्थात राष्ट्र के विद्वानों को राज्य का कर्मचारी बनना उचित नहीं होता हैl भारतीय पुरातन शास्त्रों का विधान है कि जब कोई ब्राह्मण अर्थात विद्वान किसी राज्य का वेतनभोगी कर्मचारी बन जाता है तो वह शूद्र पद को प्राप्त हो जाता हैlइसका अभिप्राय यह है कि उस विद्वान की विद्वत्ता अर्थात विद्या लोप हो जाती हैl कोई बिरला ही अपनी विद्वत्ता को रखता हुआ वेतनभोगी हो सकता हैl उसका किसी भी समय राज्याधिकारियों से विरोध हो जाना असम्भव नहीं हैlइसी कारण न्यायालयों के न्यायाधीशों को वेतन और सेवा से मुक्त करने का अधिकार राज्य को नहीं दिया गया ,किन्तु इतने भर से भारतीयों को सन्तुष्ट नहीं हो जाना चाहिए, जब तक कि देश की न्यायपीठ राज्य प्रशासन से सर्वथा स्वतंत्र नहीं हो जाती तब तक भारतवर्ष , भारतवासियों का कल्याण असम्भव हैlन्यायाधीशों का चयन, उनकी नियुक्ति-विमुक्ति और वेतन आदि राज्यतन्त्र से सर्वथा स्वतंत्र होंl देश उअर जाति में न्यायाधीशों का इतना सम्मान होना चाहिए कि कोई भी शासक उनको प्रभावित करने का दुस्साहस न कर सकेl इन सब कार्यों को सम्भव बनाने के लिये यह नितान्त आवश्यक है कि समाज अर्थात राष्ट्र में विद्वानों की महिमा को सर्वोपरि माना जाएl यह भावना का विषय है और इसे शिक्षा द्वारा जनमानस में उत्पन्न किया जा सकता है, परन्तु अत्यंत क्षोभनाक विषय है कि वर्तमान युग में शिक्षा राज्य की चेरी बनी हुई हैl इसलिए सर्वप्रथम शिक्षा को राज्य के चंगुल से मुक्त किया जाना चाहिएl यह तभी सम्भव है जब राज्य के कार्यों से सम्बन्धित संविधान की धाराओं में संशोधन किया जाएl

शिक्षा का अभिप्राय है मन,बुद्धि और आत्मा के स्वभाव का विकासl इसमें अक्षर ज्ञान अर्थात भाषा का ज्ञान तथा आरम्भिक गणित,इतिहास,भूगोल आदि का ज्ञान,मन,बुद्धि और आत्मा के स्वभाव के विकास में साधन हैंl ये विषय अर्थात भाषा,गणित,इतिहास इत्यादि वास्तविक शिक्षा में साधन मात्र हैंl  वह शिक्षा नहीं है, शिक्षा इन विषयों के आश्रय परन्तु इनसे सर्वथा पृथक होती हैl अतः जहाँ भाषा आदि साधनों की शिक्षा दि जाती है वहाँ इनके प्रयोग की शिक्षा का भी प्रबन्ध होना चाहिए , परन्तु वह भी राज्याधीन नहीं होना चाहिएl वह निर्मल और स्वतंत्र आचार-विचार वाले विद्वानों का विषय होना चाहिएl वर्तमान शिक्षा व्यवस्था में प्रारम्भिक अक्षर ज्ञान से लेकर सर्वोच्च शिक्षा तक राज्य के अधीन हैlकेन्द्र और राज्यों की राज्य सरकारें शिक्षा मंत्री और उसके अधीन शिक्षा विभाग प्रारम्भ किये हुए हैंl इस प्रकार सर्कारीशिक्षा विभाग ही पूर्ण शिक्षा व्यवस्था पर अपना अधिपत्य स्थापित किये हुए हैंl यहाँ तक कि राज्य यह भी देखने लगा है कि किसको क्या पढ़ाया जाये और किसको क्या न पढ़ाया जायेlराज्य की सुविधा के लिये भारतीय इतिहास को ही बदल दिया गया हैl किसी भी विषय का कौन सा अंश पढ़ाया जाये और कौन सा न पढ़ाया जाये, यह भी विचार किया जाने लगा है? कौन व्यक्ति पढ़ाये और कौन न पढ़ाये, यदि पढ़ाये तो कितना पढ़ाये, इसका निर्णय सरकारी शिक्षा विभाग करने लगा हैl यह सच है कि सरकारी शिक्षा विभाग शिक्षकों द्वारा राज्य करता है किन्तु वे शिक्षक भी तो सरकार के अपने नियुक्त किये हुए हैंl जो व्यक्ति राज्य के शिक्षा मंत्री एवं उसकी नीति का समर्थक नहीं होता वह शिक्षक बन ही नहीं सकताl इस प्रकार शिक्षा विभाग के माध्यम से जो कुछ भी पढ़ाया जा रहा है वह सब सरकारी नीति का परिपोषक ही है,और यह बात इतिहास के विषय में ही हो ऐसी बात नहीं है, अपितु शिक्षा के सभी आधारभूत विषयों के सम्बन्ध में हैl उदाहरण के रूप में शुद्ध विज्ञान का विषय लिया जा सकता हैl जगत जो कि सौर-मण्डल का छोटा सा भाग है, वह बना है, ऐसा सब वैज्ञानिक मानते हैं, परन्तु इस जगत के निर्माता के विषय में किसी सरकारी विद्यालय अथवा महाविद्यालय में न केवल उसका नाम लेना वर्जित है अपितु वह उपहास का विषय बन जाता हैlइसका सम्बन्ध जगत में विद्यमान पदार्थों से ही अथवा नहीं, यह एक पृथक बात है, परन्तु जगत बनाने वाले के होने और उसके सामर्थ्य का घना सम्बन्ध मनुष्य के अपने जीवन से हैl न तो कोई सरकार इस विषय में रूचिशील है और न कभी हो सकती हैl सरकार के इस विषय में रुचि नहीं रखने का कारण यह है कि यदि सर्कार यह स्वीकार कर ले तो फिर उससे सरकार को सृष्टि के रचने वाले का ज्ञान होने पर यह मानने पर विवश होना पड़ेगा कि कोई उस पर भी नियन्त्रण रखने वाला है, किन्तु प्रजातांत्रिक राज्य स्वयं पर किसी प्रकार का स्वीकार करने के लिये उद्यत्त नहीं हैंl  राज्य के ऊपर परमात्मा का अस्तित्व मानने से ईश्वरीय नियमों, ऋतों अर्थात राज्यों के प्राकृतिक नियमों को मन्ना पड़ेगाl इन ऋतों क् राज्य पर नियन्त्रण राज्यों को स्वीकार नहीं क्योंकि प्रजातांत्रिक राज्य स्वयं पर किसी प्रकार का नियन्त्रण स्वीकार करने को तैयार नहीं होतेl

शिक्षा के किसी भी विषय के उदाहरण को लेकर देखा जा सकता हैl गणित को ही लीजिएl गणित एक ऐसा विषय है स्थिर और निश्चित माना जाता है, परन्तु इसमें भी ईश्वरीय नियमों का आधिपत्य हैlजब आइन्सटाइन अपनी गिनती करता-करता अपनी सृष्टि के अंतिम छोर पर पहुँच गया तो उसने घोषणा कर दी कि पृथ्वी गोल हैl प्रश्न यह नहीं कि पृथ्वी गोल है अथवा चपटी? प्रश्न तो यह था कि इसका आरम्भ और अन्त है कि नहीं? आइन्सटाइन का गणित इस विषय पर मौन हैl जो समीकरण अर्थात इक्वेशन उसने विचार की है वह सृष्टि के किनारे को प्रकट नहीं करती और उसने यह कहकर बात छोड़ दी है कि सृष्टि-रचना एक बहुत बड़े धमाके के साथ आरम्भ हुई थीl यह धमाका किसने किया,क्यों किया और कैसे किया?इन विषयों पर आइन्सटाइन मौन हैl कहने का अभिप्राय यह है कि गणित का भी कुछ उद्देश्य है और उसका आदि-अन्त भी हैl इसके लिये गणित से उपर किसी का आश्रय लेना पड़ता है, किन्तु वह सरकारी शिक्षा में नगण्य हैlमीमांसा अर्थात दर्शन शास्त्र के आधारभूत प्रश्न हैं कब,क्या और क्यों?इन सबका उत्तर भी सरकारी शिक्षा का विषय नहीं है और वह हो भी नहीं सकताl यही आश्रय है शिक्षा और वर्तमान शिक्षा, जो राजनितिक लगाम के अधीन है,वह इस आधारभूत प्रश्न पर मौन हैlइस प्रश्न के उत्तर में ही संसार भर के राज्यों के कानून का आधार हैl इसी प्रकार किसी भी अन्य विषय को लिया जाए सब विद्याओं का आदि और अन्त एक आदि, अव्यय,अनन्त और असीम सामर्थ्य की सत्ता में हैl मानव समाज से उसका घनिष्ठ सम्बन्ध हैl इस शिक्षा के आधारभूत विन्दु में सरकार आपत्ति करती हैl

सरकारी शिक्षा इस निष्कर्ष तक क्यों नहीं पहुँच सकती? उसका कारण यह है कि वर्तमान का प्रजातान्त्रिक राज्य उस निष्कर्ष तक पहुँचने में अपनी न्यूनता को स्वीकार करना नहीं चाहता और अपने से ऊपर अन्य किसी को नहीं मान सकताl  जिसका दुष्परिणाम यह हो रहा है कि समस्त संसार में कामनाओं का अपर साम्राज्य स्थापित हो गया है और उसके अधीन समस्त मानव प्राणी विचलित हो रहे हैंl जब मनुष्य अपना उद्देश्य और उस उद्देश्य की प्राप्ति में कर्म का दर्शन नहीं करता तो फिर युद्ध, आक्रमण, डाके, हत्याएँ और इनके लिये साधन बटोरने में ही जीवन व्यतीत हो रहा हैl आधारभूत ज्ञान जब तक राज्य के नियन्त्रण से मुक्त नहीं होता तब तक मानव समाज में शान्ति नहीं हो सकती और न ही मानव सृष्टि किसी प्रकार की उन्नति ही कर सकती हैl बहुसंख्यक भारतीय समाज आस्तिक होने के कारण अपनी शिक्षा पद्धति को राज्य की दस्ता से मुक्त करेl इसके लिये राज्य के अतिरिक्त समाज को स्वयं क्रियाशील होना चाहिए और समाज के धर्मस्थान, ऐतिहासिक और जातीय अर्थात धार्मिक पर्व की व्यवस्था राज्य व्यवस्था से मुक्त करके समाज के अधीन कर देना श्रेयस्कर होगाl व्यक्तिगत व राष्ट्रीय कल्याण हेतु समाज की शिक्षा राज्य की सीमाओं से मुक्त किया जाना चाहिएl

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