Wednesday, December 31, 2014

आवश्यक है समाज के बाहरी स्वरुप का निर्धारण -अशोक “प्रवृद्ध”

झारखण्ड की राजधानी राँची से प्रकाशित हिन्दी दैनिक राष्ट्रीय खबर के सम्पादकीय प्रिष्ठ पर दिनांक - ३१ / १२ / २०१४ को प्रकाशित लेख -आवश्यक है समाज के बाहरी स्वरुप का निर्धारण


आवश्यक है समाज के बाहरी स्वरुप का निर्धारण 
-अशोक “प्रवृद्ध”

समाज का बाहरी स्वरुप होना नितान्त आवश्यक है और प्रत्येक समाज का यह स्वयं करणीय कर्म अर्थात कार्य है कि वह अपने लक्षण (स्वरूप) का निर्धारण स्वयं करे,जो देखने वालों को दिखाई देlउदहारण के रूप में आर्य सनातन वैदिक धर्मावलम्बी हिन्दुओं में बहुत पुरातन काल में यह सिर पर चोटी (शिखा) धारण करना, तिलक लगाना,धोती पहनना और नाम विशेष द्वारा प्रकट किया जाता था,किन्तु ज्यों-ज्यों पाश्चात्य प्रभाव बढ़ता जा रहा है त्यों-त्यों बाहरी लक्षण विलुप्त होते जा रहे हैंlचोटी तो अब लगभग विलुप्त ही हो चुकी हैlयज्ञोपवीत भी बहुत ही कम लोग धारण कर रहे हैंlतिलाकादि भी बहुत कम लोग लगाया करते हैंlपहनावे में धोती का स्थान पैंट ने ले लिया हैlकोट भी खूब पहना जाता है और टाई के बिना तो अब काम ही नहीं चलताlयद्यपि इसमें किसी प्रकार का कोई दोष नहीं है तदपि जातीय अर्थात राष्ट्रीय स्वरूप की आवश्यकता तो है हीlएक समय ऐसा भी था जब यदि किसी की चोटी को छल अथवा बल से काट दिया जाता था तो यह माना जाता था कि उसकी वह जातीयता समाप्त हो गई हैlकहीं-कहीं नाम बदल जाने से जातीयता बदल जाना मान लिया जाता था lयदि किसी ने रामचन्द्र के स्थान पर अपना नाम रहमान अथवा रहीमुद्दीन रख लेता था तो यह समझ लिया जाता था कि वह हिन्दू से मुसलमान बन गया हैlइसी प्रकार कोई करीम से अपना नाम कृष्टो रख लेता था तो समझा जाता था कि वह मुसलमान से ईसाई हो गया हैlजो कोई पुनः अपने पूर्व समुदाय में वापस आना चाहता था तो उसको पूर्व के सब लक्षण स्वीकार करने पड़ते थे, परन्तु अब शनैः-शनैः नाम के अतिरिक्त अन्य बाहरी सभी लक्षण विलुप्त होते जा रहे हैंlउनको अब अनावश्यक समझा जाने लगा हैl
ऐसी परिस्थिति में यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि आर्य सनातन वैदिक धर्मावलंबी हिन्दू समाज के घटकों का भी कोई बाहरी लक्षण होना चाहिए कि नहीं?ये लक्षण मान्यताओं से पृथक हैंऔर मान्यताओं में ऐसा कुछ भी नहीं जिसका कि सम्बन्ध जातीय स्वरुप से होlयह एक अति जटिल प्रश्न है कि लगभग दो सौ राजनीतिक मानव समुदायों के लिये इतने बाहरी लक्षण क्यों हैं और क्या वे हो भी सकते हैं?और अगर मान लिया जाये कि हो सकते हैं,तो क्या किसी प्रकार का कोई लाभ किसी जाति को होगा?जब संसार में यातायात के साधन सीमित अथवा नगण्य थे तब इन लक्षणों का औचित्य संभव प्रतीत होता था,परन्तु अब तो यातायात के साधन इतने विकसित,विस्तृत और सरल हो गये हैं कि इससे अनेक समुदायों के बाह्य लक्षण विलुप्त होते जा रहे हैं lविश्व के अधिकांश देशों में अब कमीज,पतलून अर्थात शर्ट-पैंट, कोट,टाई और जूते साधारण परिधान माना जाने लगा है lअब वस्त्रों द्वारा जातीयता का स्वरुप विलुप्त हो गया है lकुछ इस्लामी देशों को छोड़कर समस्त संसार में एकसमान वस्त्र धारण किये जाने लगे हैं lइससे यह स्पष्ट है कि अब जातीय पहरावा लक्षण नहीं रहाlशिखा अर्थात चोटी,जनेऊ और तिलक भी विलुप्त हो गये हैं lभाषा का ज्ञान अब देशगत जातियों का रह गया है,परन्तु सांस्कृतिक समाजों में यह भी विलुप्त होता जा रहा है l ऐसे में प्रश्न खड़ा होता है कि देश का बहुसंख्यक समाज इस सब में कहाँ खड़ा है?क्या देश के बहुसंख्यक समाज के लिये बाहरी लक्षणों की आवश्यकता है?क्यों कोई हिन्दू विशेष प्रकार के वस्त्र पहने अथवा कोई अन्य बाहरी लक्षण रखे और यदि रखे तो क्या रखे?ध्यातव्य है कि हिन्दू समाज केवल एक स्थानीय समुदाय नहीं वरन एक वैश्विक समाज है lयह तो ठीक है कि हिन्दू समुदाय का भारत देश से विशेष सम्बन्ध है और हिन्दू समुदाय के स्वभाव में भारतवर्ष के प्रति विशेष ममत्व भी है,परन्तु यह विषय तो यहाँ सरकार का हैlइसी विषय पर तो असम में विवाद चल रहे हैं और गृहयुद्ध की स्थिति उत्पन्न हो गयी है lयह असम के निवासियों की पहचान का विवाद है, यह असम के निवासियों की पहचान की लड़ाई है lयह विवाद हिन्दू अथवा अहिन्दू का नहीं है lयह लड़ाई असम की अस्मिता और पहचान की लड़ाई है lभारतीय अर्थात हिन्दू समाज के लक्षण और मान्यताओं से पृथक हिन्दू समाज की पहचान के लिये किसी बाहरी लक्षण की नितान्त आवश्यकता है और कोई ऐसा बाहरी लक्षण होना ही चाहिए जिसका मान्यताओं के साथ अटूट सम्बन्ध होlवह सम्बन्ध भाषा का है, जो उन मान्यताओं को स्वीकार करते हैं, और जहाँ तक विदित हो पाया है,उनका सम्बन्ध संस्कृत भाषा से हैlइन मान्यताओं को स्वीकार करने वालों का विचार करने का माध्यम सदा संस्कृत भाषा ही रही है, और आज भी, संसार की साँझी भाषा अंग्रेजी होते हुए भी , भारतीय अर्थात हिन्दू समाज का सम्पूर्ण साहित्य संस्कृत भाषा में ही हैlविद्वानों का मत है कि हिन्दू समाज की मान्यताओं की व्याख्या जिस विशेषता से संस्कृत भाषा में व्यक्त की जाती है वह किसी अन्य भाषा में व्यक्त नहीं की जा सकतीlइस प्रकार यह निर्विवाद सत्य है कि इन मान्यताओं के मानने वालों का ऐतिहासिक सम्बन्ध संस्कृत भाषा के साहित्य से ही हैl अतः भारतीय अर्थात हिन्दू समाज का श्रेष्ठ बाहरी लक्षण इस भाषा के अतिरिक्त अन्य किसी भाषा में नहीं हो सकता,और प्रसन्नता की बात है कि इसका एक चिह्न तो अभी भी भारतीय समाज में विद्यमान हैl भारतीय समाज में विद्यमान वह लक्षण है हिन्दू समाज के घटकों के नामlअधिकांश घटकों के नाम संस्कृत भाषा और साहित्य से लेकर ही रखे जाते हैंlजैसे- रजत, आनीत्त अवात्तम, सोमनाथ इत्यादिlसमाज के घटकों में समीपता प्रकट करने और दूसरों से भिन्नता प्रकट करने के लिये सबसे प्रथम और सुगम उपाय नाम के जानने से ही हैlइसके जानने की आवश्यकता और लाभ यह है कि मान्यताओं को मानने वालों को जानने का यह एक मोटा और सुगम उपाय हैlयह मिथ्या भी हो सकता है,परन्तु सामान्य जीवन में इसका लाभ हैlसमाज के घटकों में सम्पर्क,सह्करिता तथा वार्तालाप,व्यापारिक सम्पर्क अंग हैं जो अंग्रेजी में सोशल बिहेवियर कहलाता हैlइस व्यवहार के कारण ही मानव सामाजिक प्राणी माना जाता हैlइस व्यवहार में मान्यताओं का घनिष्ठ सम्बन्ध हैlसमाज के घटकों के नाम इन मान्यताओं का प्रथम संकेत हैंlउदाहरणतः, दो व्यक्ति रेल में यात्रा करते हुये जा रहे हैं और वे परस्पर बातें करने लगते हैंlउनमे से एक का नाम हो रामगुलाम और दूसरे का गुलाम मुहम्मद तो परस्पर के वार्तालाप में बहुत से प्रतिबन्ध स्वतः ही प्रकट हो जायेंगेlरामगुलाम के लिये यह आवश्यक हो जायेगा कि वह सावधान रहे कि कहीं गुलाम मुहम्मद को यह न कह बैठे कि हजरत मोहम्मद औरतों को घर की मेज-कुर्सी के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं समझते थेlवह हजरत मुहम्मद के गैर-मुसलमानों के साथ किये गये व्यवहार की बात भी नहीं करेगाlनाम जान लेने से ये तथा इस प्रकार के अन्य अनेक प्रतिबन्ध स्वतः समुपस्थित हो जाया करते हैंlऔर यदि कहीं वह सहयात्री रामचन्द्र अथवा कृष्णमूर्ति हो तो बिना यह जाने कि उनमें से एक स्वामी शंकराचार्य का मतानुयायी अथवा कि नहीं वह निःशंक हो द्वैतवाद अथवा त्रैतवाद की निन्दा-स्तुति करने लगेगाlइस अवसर पर तो यह भी कहने का साहस किया जा सकता है कि देवदासियों की प्रथा एक प्रकार से वेश्याओं का बाजार है अथवा धर्म और पवित्रता का श्रेष्ठ संगमlनाम का ज्ञान होने से यह सामान्य सी सुविधा हो जाती हैlवैसे समाज में घनिष्ठ संबंधों के बनने अथवा न बनने में यह पूर्व ही होता हैlअतः समाज के घटकों के नाम इस विशेष भाषा में होने के कारण जीवन सुलभ,सरस और सरल होने में सहायक बन जाता हैlइससे समाज के बाह्य लक्षणों के नियत करने से जीवन में सुगमता और सरलता होगीlभिन्न-भिन्न सम्प्रदाय ,पंथों के मिशनों की बात छोड़ भी दिया जाये तो भी हिन्दू समाज का बाहरी रूप, संस्कृत भाषा में नाम एक अत्यन्त उपकारी और सुगम एवं निरापद उपाय हैlसंस्कृत भाषा को ही इस महती कार्य हेतु उपयुक्त समझे जाने का कारण सभी हिन्दू-शास्त्र तथा अन्यान्य विद्याओं के ग्रन्थ संस्कृत भाषा में ही उपलब्ध होना , संस्कृत भाषा संसार की अन्य भाषाओँ से अति मधुर, सरल और ठीक-ठीक अर्थ प्रकट करने वाली भाषा होना, संस्कृत भषा की वर्तमान लिपि संसार की सब भाषाओँ की लिपियों से अधिक वैज्ञानिक और पूर्ण होने और भाषाओं व लिपियों का सर्वाधिक आवश्यक गुण संस्कृत भाषा और देवनागरी लिपि में विद्यमान होने के गुण आदि हैl अतः मान्यताओं के साक्षी रूप नाम सरल और सार्थक भाषा में होनी चाहिए और यह भाषा संस्कृत भाषा और देवनागरी लिपि ही हो सकती हैl

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