Friday, March 20, 2015

सृष्टि का सृजनोत्सव है नवसंवत्सर -अशोक “प्रवृद्ध”

राँची  , झारखण्ड से प्रकाशित होने वाली दैनिक समचार पत्र राष्ट्रीय खबर के सम्पादकीय पृष्ठ पर दिनाँक- २० / ०३/ २०१५ को प्रकाशित लेख -सृष्टि का सृजनोत्सव है नवसंवत्सर


सृष्टि का सृजनोत्सव है नवसंवत्सर 
-अशोक “प्रवृद्ध”


भारतीय संस्कृति में नववर्ष का शुभारम्भ चैत्र मास के शुक्लपक्ष की प्रतिपदा से माना गया है। भारतवर्ष का सर्वमान्य संवत विक्रम संवत का प्रारम्भ भी आज से २०७२ वर्ष पूर्व चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से ही होता है। इस तिथि को भारतीय संस्कृति में अति पावन दिन माना गया है। क्योंकि पुरातन धर्मग्रन्थों के अनुसार  चैत्र मास के शुक्लपक्ष की प्रतिपदा तिथि ही सृष्टि की जन्मतिथि है और इसी प्रतिपदा तिथि दिन रविवार को सूर्योदय होने पर ब्रह्मा ने सृष्टि के निर्माण की शुरुआत की थी। उन्होंने इस प्रतिपदा तिथि को प्रवरा अथवा सर्वोत्तम तिथि कहा था। इसलिए इसको सृष्टि का प्रथम दिवस भी कहते हैं। इस दिन से संवत्सर का पूजन, वासंतिक नवरात्र घटस्थापन, ध्वजारोपण, वर्षेश का फल पाठ आदि विधि-विधान किए जाते हैं। वर्ष प्रतिपदा तिथि का अपना विशिष्ट पौराणिक व ऐतिहासिक महत्व है । चैत्र शुक्लपक्ष प्रतिपदा तिथि ही विक्रमी संवत का पहला दिन, प्रभु श्री राम का राज्याभिषेक दिवस, नवरात्र स्थापना का प्रथम दिवस,सिख परम्परा के द्वितीय गुरू गुरू अंगददेव प्रगटोत्सव अर्थात जन्म दिवस, आर्य समाज स्थापना दिवस, संत झूलेलाल जन्म दिवस, शालिवाहन संवत्सर का प्रारंभ दिवस, युगाब्द संवत्सर का प्रथम दिन है।

 ब्रह्म पुराण के अनुसार चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को ही सृष्टि का प्रारम्भ हुआ था और इसी दिन भारतवर्ष में काल गणना प्रारम्भ हुई थी। कहा है कि -
चैत्र मासे जगद्ब्रह्म समग्रे प्रथमेऽनि
शुक्ल पक्षे समग्रे तु सदा सूर्योदये सति। - ब्रह्म पुराण
 अर्थात- चैत्र-शुक्ल-प्रतिपदा को सूर्योदय के समय पितामह ब्रह्मा ने सृष्टि के निर्माण का श्रीगणेश किया।
इस प्रकार असीम काल को संख्या में बाँधने का प्रथम स्तुत्य प्रयास ऋषियों ने किया । समय वह कालपुरुष है, जिसे कदापि पकड़ा नहीं जा सकता क्योंकि यह गतिमान होने के साथ ही अनन्त और असीम है, परन्तु हमारे त्रिकालदर्शी कालद्रष्टा ऋषियों ने समय के मापन हेतु समाधि में अन्तर्लीन होकर चेतना के साक्षात्कार से उद्भूत मेधा द्वारा काल की गणना का स्वरूप का अन्वेषण कर लिया था ।उन्होंने समय की सर्वाधिक सूक्ष्म इकाई त्रुटि से लेकर दीर्घ इकाई महायुग, कल्प, ब्राह्म वर्ष आदि वृहद इकाईयों में समय की गणना करके काल का निर्धारण किया है। हजारों-लाखों वर्ष पूर्व भारतीय ज्योतिषियों ने वैदिक परम्परा के अनुरूप कालगणना की वैज्ञानिक पद्धति का विकास कर लिया था जो वर्तमान वैज्ञानिक गणना से भी अधिक सटीक है।इसलिए यह आज भी विश्व के काल वैज्ञानिकों के लिए प्रेरणाप्रद है।
भारतीय ज्योतिष शास्त्र सृष्टि-उत्पति काल और मनुष्य-जन्म काल का काल नक्षत्रों को देखकर बतलाता है l ज्योतिष शास्त्र के अनुसार आज 2015 ई० की 21 मार्च अर्थात विक्रम सम्वत 2072 की प्रारम्भण दिवस चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से 1,97,29,40,115 वर्ष पूर्व आरम्भ हुई , परन्तु यह मनुष्य के आविर्भाव का काल नहीं है l मनुष्य का इस पृथ्वी पर आविर्भाव वर्तमान चतुर्युगी माना जाता है l (इस सम्बन्ध में पृथक रूप से गत 11 दिसम्बर 2014 को  राष्ट्रीय खबर के सम्पादकीय पृष्ठ पर वैदिक मान्यतानुसार मानव सृष्टि काल नामक  लेख प्रकाशित हो चुका है l) इसकी गणना इस प्रकार की गई है l4,32,00,00,000 सौर वर्ष का ब्रह्मदिन माना गया है l पूर्ण ब्रह्म दिन को 14 मन्वन्तरों में बांटा है l इन मन्वन्तरों में से अभी तक छः मन्वन्तर व्यतीत हो चुके हैं और सातवाँ मन्वन्तर चल रहा है l सातवें मन्वन्तर की 27 चतुर्युगियाँ व्यतीत हो चुकी हैं l अठाईसवीं चयुर्युगी का सतयुग , त्रेतायुग और द्वापर युग बीत चुका है और कलियुग के 5115 वर्ष व्यतीत हो चुके हैं l यह सब बनता है 1,97,29,40,115 सौर वर्ष lकुछ विद्वान इसे 1,97,29,49,115 वर्ष मानते हैं ,परन्तु ज्योतिष संहिता ,मनुस्मृति और संकल्प मन्त्र के अनुसार यह 1,97,29,40,115 वर्ष ही सटीक है l यह सृष्टि रचना के आरम्भ से आज तक का व्यतीत काल है l सृष्टि - रचना का कार्य तब आरम्भ होता है , जब परमाणु की साम्यावस्था भंग होती है l सूर्य सिद्धांत के अनुसार ब्रह्माजी को सृष्टि की रचना करने में 47,400 दिव्य वर्ष लगे थे। चूँकि देवताओं का एक वर्ष (एक दिव्य वर्ष) हमारी पृथ्वी के 360 सौर वर्षों के बराबर होता है, इसलिए विक्रम संवत 2072 में सृष्टि की शुद्ध आयु =1,97,29,40,115 -1,70,64,000 =1,95,58,76,115 (1,97,29,49,115 -1,70,64,000 =1,95,58,85,115 ) सौर वर्ष होगी। अर्थात इतने समय पूर्व सृष्टि निर्माण का कार्य संपन्न (पूर्ण) हुआ था।


भारतीय कालगणना के मतानुसार आगामी शनिवार इक्कीस मार्च को चैत्र-शुक्ल-प्रतिपदा से जब नवसंवत्सर अर्थात विक्रम संवत  2072 का प्रारम्भ होगा, तब सृष्टि का निर्माण हुए 1,97,29,40,115 वर्ष व्यतीत हो चुके होंगे और 1,97,29,40,116 वाँ वर्ष प्रारम्भ हो चुका होगा । प्राचीन भारतीय ऋषि-मुनियों ने चैत्र-शुक्ल-प्रतिपदा की महता और इस दिन को सृष्टियादि तिथि होने की बात को जानकर इसी तिथि से भारतीय संवत्सर (वर्ष) के शुभारम्भ को मान्यता दी।
ज्योतिषियों,काल वैज्ञानिकों, संवत्सर के अध्येताओं के अनुसार वर्तमान समय में प्रचलित कैलेण्डर में समय अर्थात काल के अध्ययन के मुख्यत: तीन मानक है- वर्ष, माह और तारीख। इसी कारण पाश्चात्य अंक ज्योतिष में समय का केवल त्रिआयामी अध्ययन ही होता है, जबकि भारतीय ज्योतिष में काल की पञ्च-आयामी विश्लेषण की जाती है। काल के इन पाँच अंगों के विधिवत अध्ययन करने के उपकरण को ही पञ्चांग कहा जाता है। भारतीय कैलेण्डर अर्थात पञ्चांग के पाँच प्रमुख अंग हैं- तिथि, वार, नक्षत्र, योग और करण (तिथि का आधा भाग)। पञ्चांग के माध्यम से समय के विभिन्न अंगों का अध्ययन और विश्लेषण करके यह जाना जाता है कि किस कार्य को करने के लिए कौन सा दिन शुभ व सही है? इस प्रकार समय (काल) की सटीक गणना और उसकी प्रवृत्ति को जानकर सही समय पर उचित काम करके सफलता पाई जा सकती है। भारतीय संस्कृति में काल-गणना मात्र गणितीय नहीं है, वरन यह भविष्य के लिए संकेत भी करती है। यहाँ हर संवत्सर अर्थात वर्ष को एक पृथक नाम भी दिया गया है। उदाहरण के लिए बहुत अच्छे नक्षत्रों के साथ प्रारम्भ होने वाली 2072 संवत्सर को नाम दिया गया है कीलक।संवत्सर के नाम में ही उस वर्ष में होने वाली मुख्य घटनाओं का संकेत छुपा रहता है। संवत्सर का नामकरण प्रकृति सापेक्ष होने से हम संवत्सर को प्रकृति का दर्पण भी कह सकते हैं। वस्तुत: संवत्सर (वर्ष) सिर्फ अंकों का खेल नहीं, बल्कि वह ऐसा दर्पण है, जिसमें प्रकृति का हर अंग स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। पञ्चांग के माध्यम से संवत्सर में प्रकृति अर्थात मौसम का अति सूक्ष्म अध्ययन और विश्लेषण किया जाता है।


नव-संवत्सर का उत्सव प्राचीन काल से ही चैत्र-शुक्ल-प्रतिपदा के दिन नव-संवत्सरोत्सव के रूप में बड़े धूमधाम से मनाया जाता रहा है। इस दिन सृष्टिकर्ता ब्रह्मा तथा सृष्टि के समस्त अंगों के प्रति आभार व्यक्त किए जाने की परिपाटी है  और काल अर्थात समय एवं सृष्टि के समस्त अंगों का पूजन किया जाता है। सृष्टि के विभिन्न अंगों का पूजन करते समय पर्यावरण की शुद्धि और प्रदूषण की समाप्ति का विचार मनुष्य में स्वत: आ जाने के कारण प्राचीन काल से ही मनुष्य इनके प्रति जागरूक रहा है तथा वृक्ष, नदियों में देवत्व की भावना रखने के कारण इनकी सुरक्षा पर पर्याप्त ध्यान देने की प्रवृति जागृत हुई।वर्तमान में पाश्चात्य भोगवादी प्रवृति के कारण उपजी  हमारी उपेक्षा और लोभ के कारण पर्यावरण को चतुर्दिक क्षति पहुँच रही है।हमारी उदासीनता के कारण जल भण्डारों, नदियों में प्रदूषण बढ़ा है, जबकि प्राचीन काल में नव-संवत्सर के शुभारम्भ के समय सृष्टि के विभिन्न घटकों की पूजा करते समय इनकी सुरक्षा का संकल्प स्वयमेव ही मनुष्य ले लेता था। नवसंवत्सर का प्रमुख सन्देश है कि मानव यदि पृथ्वी एवं स्वअस्तित्व को सुरक्षित, प्रवृद्ध रखना चाहता है, तो उसे सृष्टि के विभिन्न घटकों, जैसे- पृथ्वी,जल और वायु आदि को प्रदूषण से मुक्त रखना होगा तथा वृक्षों की कटान और पहाड़ों के खनन को अत्यल्प करना होगा। नव-संवत्सरोत्सव में काल (समय) का, उसके विभिन्न अंगों- वर्ष, मास, तिथि, वार, नक्षत्र आदि के साथ पूजन करने का उद्देश्य समय की महत्ता को समझना-समझाना ही है। कारण कि समय का सदुपयोग ही लाभ है और दुरुपयोग हानि। आनन्द, उल्लास, उमंग, खुशी तथा चतुर्दिक पुष्पों की सुगन्धि से भरी वसन्त ऋतु का आरम्भ  वर्ष प्रतिपदा से ही होता है जो फसल पकने का प्रारम्भ अर्थात कृषकों के परिश्रम का फल मिलने का समय होता है। इस समय नक्षत्र शुभ स्थिति में होते हैं अर्थात् किसी भी कार्य को प्रारम्भ करने के लिये यह शुभ मुहूर्त होता है। इसलिए इस शुभ पावन नववर्ष प्रतिपदा तिथि की सभी भारतीयों को असीम शुभ कामनाओं के साथ नववर्ष के अशुभ फलों के निवारण हेतु ईश्वर से प्रार्थना है कि वे सब पर कृपा बनाएँ रखें जिससे समस्त संसार के लिए यह संवत्सर कल्याणकारी हो और इस संवत्सर के मध्य में आने वाले सभी अनिष्ट और विघ्न-बाधाएँ दूर व शान्त हो जायें ।


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