Tuesday, April 7, 2015

कर्म करने में स्वतंत्र है मनुष्य -अशोक “प्रवृद्ध”

झारखण्ड की राजधानी राँची से प्रकाशित दैनिक समाचार पत्र राष्ट्रीय खबर के सम्पादकीय पृष्ठ पर दिनांक- ०७/०४/२०१५ को प्रकाशित लेख - कर्म करने में स्वतंत्र है मनुष्य


कर्म करने में स्वतंत्र है  मनुष्य
-अशोक “प्रवृद्ध”

मनुष्य कर्म करने में स्वतंत्र है, परन्तु मनुष्य से इतर जीव-जन्तु कर्म करने में स्वतंत्र नहीं हैंl उनको जैसे-तैसे जीवन  यापन करना पड़ता है,उसमे किसी प्रकार के परिवर्तन का वे विचार नहीं कर सकतेlइस कारण वे यम (परमात्मा की नियन्त्रण शक्ति) के अधीन समझे जाते हैं lवैदिक ग्रन्थों के अनुसार मनुष्य के पथ-प्रदर्शन के लिए उसे वेद ज्ञान ईश्वरीय नियम से प्राप्त होता हैlयह ज्ञान ऐसा नहीं जैसा कि गाय के गले में रस्सा डालकर ग्वाला उसे कहीं ले जाएl यह प्रेरणारूप ही हैl इसे मानना या न मानना मनुष्य के अपने अधिकार में है परन्तु अपने स्वतन्त्रता से किए कर्म का फल वह भोगता हैl श्रीमद्भगवद्गीता में कहा गया है-
न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत l
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुनैः l l
-श्रीमद्भगवद्गीता 3-5
अर्थात- मनुष्य एक क्षण के लिए भी कर्म के बिना नहीं रह सकताl वह प्रकृति (जिसमें उसका संयोग हुआ है) के गुणों से विवश हो कर्म करता हैl
वैदिक मीमांसा भी यही हैl इसके साथ हि श्रीमद्भगवद्गीता में यह भी कहा है-
दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनंजय l
बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः ll
-श्रीमद्भगवद्गीता 2-49
अर्थात- बुद्धि के योग (सहाय) से किया कर्म अत्यन्त दूर है (सामान्य) कर्म सेl अतः बुद्धि की शरण को ग्रहण करो क्योंकि फल से प्रेरित हो किया कर्म अत्यन्त हीन हैl
अभिप्राय यह है कि कर्म किए बिना कोई नहीं रह सकताl इस कारण सोच-विचारकर कर्म करना चाहिएlफल (विषयों) की प्रेरणा से किया कर्म बहुत ही हीन फल वाला होता हैl
प्रह्लाद को पूर्वजन्म के संस्कारों के अधीन जन्म-मरण,कर्म फल की मीमांसा का ज्ञान हो गयाl हिरण्यकशिपु के मरने के बाद वह राजा भी बना,परन्तु प्रेरणा का स्रोत अर्थात वेद के विद्वानों को वह अपने देश में ला नहीं सकाl दैत्यों का पुरोहित शुक्राचार्य कहलाता थाl शुक्राचार्य एक पद का नाम है,यह किसी व्यक्ति का नाम नहींlजो कर्म की महिमा को तो जानता है,परन्तु कर्म-अकर्म में भेद करने के लिए बुद्धि का प्रयोग नहीं कर सकता अथवा परमात्मा और उसके ज्ञान की प्रेरणा की अवहेलना करता है, ऐसा आचार्य मिथ्या पथ-प्रदर्शन ही करता हैl ऐसे ही थे दैत्यों के आचार्य शुक्राचार्यl
परमात्मा ने मनुष्य के पथ-प्रदर्शन के लिए उसे बुद्धि दी हैlअतः कर्म अथवा कर्म बतलाने वाले किसी भी ग्रन्थ की परख सदा बुद्धि से होती रहे तो मनुष्य भटक भी जाए, परन्तु अन्त में सत्य मार्ग पा ही जाता हैl इसी कारण वैदिक विद्वानों ने कहा है कि वेदार्थ भी तर्क से सिद्ध होने चाहिएlसदा अर्थों को तर्क की कसौटी पर कसते रहने वाला कभी भूल भी करता है तो अपनी भूल को सुधारने का मार्ग सदैव खुला रखता है lप्रह्लाद ने पिता के विरूद्ध विद्रोह तो किया परन्तु पिता को मिथ्या प्ररेणा देने वाले शुक्राचार्य को अपना पुरोहित बनाए रखाlइसका परिणाम यह हुआ कि प्रह्लाद का पुत्र विरोचन पुनः अनीश्वरवादी हो गयाlविरोचन का पुत्र बलि हुआlबलि का पुत्र बाण हुआlबाण महान असुर थाl महाभारत में कहा है-
बलेश्च प्रथितः पुत्रो बानो नाम महासुरः l
- महाभारत आदि पर्व 65-20
इसका कारण उनके संस्कार ही थेl कश्यप-दिति वंश को शुक्राचार्य गुरु मिल गयेlशुक्राचार्य भौतिकवादी था, वह सब कुछ प्रकृति से ही, स्वभाववश उत्पन्न हुआ मानता था lहिरण्यकशिपु शुक्राचार्य का शिष्य था जो नास्तिक और साथ ही दुष्ट प्रकृति का व्यक्ति हुआlअनीश्वरवादी अथवा वे ईश्वरवादी, जो दिखावे के लिए ही परमात्मा को मानते हैं, वे ही प्रकृति से दुष्ट हो सकते हैंl फिर भी यह आवश्यक नहीं कि अनीश्वरवादी अधर्माचरण करने वाला ही होlयद्यपि परमात्मा को स्वीकार न करने वाले जब वैभव सम्पन्न होते हैं तो कर्तव्याकर्तव्य में भेद भूल जाते हैं lकारण यह है कि कर्तव्य का  पालन करने में कुछ उद्देश्य नहीं रह जाता lजब तक मनुष्य हीन और दीन रहता है तब तक वह अपने से बलशाली सांसारिक जीवों से भयभीत दूसरों के साथ धर्मयुक्त व्यवहार रखता है परन्तु जब वह सांसारिक वैभव से युक्त हो स्वयं बलवान बन जाता है तब उसका अनीश्वरवादी होना उसे उलटे मार्ग पर ले जाने में सफल हो जाता हैl ठीक यही बात हिरण्यकशिपु के साथ हुई थी l वह शक्ति से युक्त होकर जब प्रचण्ड बल का स्वामी हुआ तो फिर उसे कर्तव्य-अकर्तव्य का बोध कराने वाला कोई नहीं थाl परमात्मा नहीं, तो वेद भी नहीं, वेद नहीं तो उसमे वर्णित श्रेष्ठ व्यवहार भी नहीं lबलशाली होने पर परमात्मा तथा कर्मफल और पुनर्जन्म के ही विचार हैं, जो मनुष्य को सन्मार्ग पर आरूढ़ रख सकते हैं अर्थात आस्तिक्य (आस्तिकता) शक्तिशाली मनुष्यों को धर्मयुक्त मार्ग पर आरूढ़ रहने में सहायक होता है l
यही बात प्रह्लाद के सन्तान के साथ हुई थी lप्रहलाद अपने पूर्वजन्म के कर्मफलों से तथा गर्भावस्था में माँ से सुने नारद मुनि के उपदेशों से, परमात्मा पर अगाध विश्वास रखने वाला हो गया था lप्रह्लाद की सन्तान विरोचन और बलि तो कुछ ठीक मार्गों पर चलते रहे परन्तु बाण पुनः नास्तिक हो गयाl विरोचन ने आदित्यो के राजा इन्द्र पर आक्रमण कर दिया था lइन्द्र ने विरोचन को अपने प्रासाद में घुसने तक नहीं दिया lविरोचन के आक्रमण का कारण यही था कि लक्ष्मी जो दैत्यों की कन्या थी, दैत्यों का देश छोड़कर आदित्यों के पास चली गई थी l वहाँ उसका विवाह विष्णु से हो गया l इससे चिढकर विरोचन ने आदित्यों पर आक्रमण कर दिया l विरोचन पराजित हुआ तो शुक्राचार्य ने विरोचन और उसके पुत्र बलि को शक्ति-संचय करने की राय दी lबलि ने शक्ति-संचय कर देवलोक पर आक्रमण कर दिया lतब तक आदित्य आलस्य एवं प्रमादवश दुर्बल हो चुके थे lइस कारण बलि के देवलोक पर आक्रमण करने के कारण इन्द्रादि आदित्यों को अपना देश छोड़कर भागना पड़ा lकहा जाता है कि बलि ने तीनों लोकों में राज्य स्थापित कर  उन लोगों का दोहन आरम्भ कर दिया थाl इसका अभिप्राय यह हुआ कि समाज में ब्राह्मण,क्षत्रिय तथा वैश्य ही उपजाऊ कार्य करते हैं और बलि ने समाज के इन तीनों अंगों पर अपना आधिपत्य कर लिया था l इनका अर्जित पूर्ण धन लेकर वह यज्ञों में दान कर देता था lआदित्यों में एक अति ओजस्वी और चतुर कुमार था वामनl उसने आदित्यों का राज्य बलि से वापस लेने के लिए एक योजना बनायी और बलि के यज्ञ में जा पहुँचाlउसके ओजस्वी स्वरुप को देख बलि अत्यन्त प्रभावित हुआl बलि यज्ञ में वामन को दक्षिणा देने लगा तो वामन ने कहा कि वह धन-दौलत, रजत, स्वर्ण इत्यादि नहीं लेना चाहताlये वस्तुएँ उसके उपयोग की नहीं हैंl वह तो तीन पग भूमि माँगता हैlयज्ञ में दान देने को वचनबद्ध जब बलि तैयार हुआ तो वामन ने तीनों वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य) की मुक्ति माँग लीl इसे ही पुराणों में तीन पग भूमि कहा हैlजैसे भूमि सब सम्पति का उद्गम स्थान है, इसी प्रकार समाज का पूर्ण धन इन तीनों वर्णों की उपज ही हैlबलि इस दान के देने में हिचकिचाहट करने लगा परन्तु दिए वचन का उसने पालन किया और भूमण्डल के तीनों वर्ण स्वतंत्र हो अपने कर्मों का स्वयं भोग करने लगेl यह भारतीय परम्परा में लिखी इतिहास है और आज के इतिहास की भाषा में यह आदि वैदिक काल की कथा हैlकारण यह ही कि कश्यप इत्यादि अमैथुनीय सृष्टि के जीव थे और बलि कश्यप की चौथी पीढ़ी में ही हुआ थाl उस समय तक लगभग दो सौ वर्ष ही सृष्टि को हुए व्यतीत हुए होंगेlअतः तब तक वैदिक काल ही चल रहा थाl फिर भी सब के सब व्यक्ति वेद विचार को स्वीकार नहीं करते थेlवामन ने भी दान माँगने में चतुराई का प्रयोग किया थाlसामान्य भाषा में इसे छलना कहा जा सकता हैl इस प्रकार स्पष्ट है कि वैदिक काल में भी मनुष्य वैदिक शिक्षा को अस्वीकार करने वाले हुए थेl
यह इस कारण कि मनुष्य कार्य करने में स्वतंत्र है और कार्य पर नियन्त्रण बुद्धि द्वारा ही हो सकता हैl पुनर्जन्म के कर्मफल से सबकी बुद्धि समान नहीं होतीlअतः आदि काल से ही दो प्रकार की प्रवृत्तियों के मनुष्य चले आते है- दैवी और आसुरीl इसका वैदिक काल के होने अथवा न होने से सम्बन्ध नहीं हैlधर्म का सम्बन्ध पूर्वजन्म के संस्कारों एवं शिक्षा-दीक्षा से होता हैlवेदों की भाषा को जानने और वेदार्थ को ठीक समझने से आचरण के ठीक होने का सम्बन्ध नहीं हैlआचरण तो संस्कारों के अधीन चलता हैl

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