Saturday, March 15, 2014

भारतवर्ष को महाशक्ति नहीं वरण मुफ्तखोरों का देश बना रही हैं अनुदान आधारित अर्थात खैराती योजना

 भारतवर्ष को महाशक्ति नहीं वरण मुफ्तखोरों का देश बना रही हैं अनुदान आधारित अर्थात खैराती योजना 


छद्म स्वाधीन भारतवर्ष में अधिकाँश समय तक केन्द्र की सत्ता में सत्तासीन रहने वाली खान्ग्रेस सहित उसकी सभी धर्मनिरपेक्ष सहयोगी राज्नोतिक पार्टियां , राज्यों में कुछ हद तक भारतीय जनता पार्टी भी अपनी वोट बैंक बनाने के उद्देश्य से आम जनता को भांति - भांति के अनुदान आधारित योजनाएं अर्थात सब्सिडी वाली खैराती योजनाएं चलाकर लुभाने का प्रयत्न करने में लगी रहती हैं । अगर इसी प्रकार वोट बैंक की लालच में राजनीतिक पार्टियां अनुदान वाली योजनाओं को चलाती रहीं तो इनकी लोक-लुभावन नीतियाँ भारतवर्ष को महा शक्ति नही वरण मुफ्तखोरों का देश बना कर रख देंगी जहाँ  भारतवर्ष का आम आदमी  जानवरों की तरह खायेंगे -पियेंगे, बच्चे पैदा करेंगे और मर जायेंगे । केन्द्र की सरकार को चलाने में और बनाए रखने की लालच में इस्तेमाल की जा रही इस प्रकार की अदूरदर्शितापूर्ण नीतियों से यह देश ऐक बहुत बडा आराजिक गाँव बन कर रह गया है अथवा बन कर रह जायेगा– तो यह है मित्रों  इन विदेशी मानसिकता वाली खान्ग्रेस और उसकी छद्म धर्मनिरपेक्ष सहयोगी पार्टियों की अदूरदर्शी नीति। गत दिनों दिल्ली उपराज्य में उनचास दिनों तक अनुदान वाली योजनाओं के नाम पर  आम आदमी पार्टी के द्वारा कृत कार्य - कलापों से मचे आतंक , अव्यवस्था और उद्धम और उपजी अराजकता से इस सत्य का आभाष हो जाता है कि आनुदान आधारित खैराती योजनाएं देश में क्या अराजक स्थिति उत्पन्न कर रही हैं अथवा कर सकती है ?

यह एक सर्वविदित तथ्य है कि सिर्फ खाना - पीना और सुरक्षा के साथ आराम करना, बच्चे पैदा करना और मर जाना तो जानवर भी करते हैं परन्तु उन का कोई देश या इतिहास नहीं होता। उसी प्रकार जो मनुष्य शारीरिक आवशयक्ताओं की पूर्ति में ही अपना जीवन गंवा देते हैं। उन के और पशुओं के जीवन में कोई विशेष अन्तर नहीं रहता।छद्म स्वाधीन भारतवर्ष में प्रजातांत्रिक प्रणाली आधारित राज्य व्यवस्था कायम है यहाँ सभी नागरिकों के मत समान माने जाते हैं अर्थात सभी देशवासियों के मत एकसमान महत्व के हैं । इसका अर्थ है कि देश के राष्ट्रपति के मत (वोट) का जो महत्व है , वही महत्व राष्ट्रपति के घर में चौका - बासन करने वाली या फिर झाड़ू करने वाली के मत का भी है ( माना जाता है )  । यह सभी जानते हैं कि कोई भी देश केवल आम आदमियों के बल पर महा शक्ति नहीं बन सकता , उसके लिए आम आदमियों के बीच भी खास आदमियों, विशिष्ठ प्रतिभाओं वाले नेताओं की आवश्यकता होती है। 

 सता की लालच में फंसी खान्ग्रेस , उसकी छद्म धर्मनिरपेक्ष सहयोगी पार्टियाँ तथा आम आदमी पार्टी के नेता यह नहीं जानते कि हमारे पूर्वजों ने मुफ्त खोरी के साथ जीने की प्रवृति को स्पष्टतः मना किया है , इनकार किया है , नकारा है और पुरुषार्थ के साथ ही कुछ पाने पर बल दिया है। पुरातन भारतीय ग्रंथों में श्रम की अनिवार्यता पर बल दिया गया है और समाज अर्थात मनुष्य के सभी चारों ही आश्रमों में श्रम करने की नितांत आवश्यकता व महता पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है । सहस्त्राब्दियों वर्ष पूर्व जब पश्चिम के अमेरिका तथा यूरोप आदि विकसित देशों में जब मानव का नामोनिशान भी कहीं नहीं था तब संसार के सर्वप्रथम कानून (विधान) के ग्रन्थ अर्थात संहिता - मनुसंहिता  के रचनाकार  ऋषि मनु ने अपने विधान मनु स्मृति 7- 137-138   मे कहा है -

  यत्किंचिदपि वर्षस्य दापयेत्करसंज्ञितम्।
व्यवहारेण जीवंन्तं राजा राष्ट्रे पृथग्जनम्।।
कारुकाञ्छिल्पिनश्चैव शूद्रांश्चात्मोपजीविनः।
एकैकं कारयेत्कर्म मसि मसि महीपतिः ।। - मनु स्मृति 7- 137-138

अर्थात -राजा (सभी तरह के प्रशासक) अपने राज्य में छोटे व्यापार से जीने वाले व्यपारियों से भी कुछ न कुछ वार्षिक कर लिया करे। कारीगरी का काम कर के जीने वाले, लोहार, बेलदार, और बोझा ढोने वाले मज़दूरों से कर स्वरुप महीने में एक दिन का काम ले।

नोच्छिन्द्यात्मनो मूलं परेषां चातितृष्णाया।
उच्छिन्दव्ह्यात्मनो मूलमात्मानं तांश्च पीडयेत्।।
तीक्ष्णश्चैव मृदुश्च स्यात्कार्यं वीक्ष्य महीपतिः।
तीक्ष्णश्चैव मृदुश्चैव राजा भवति सम्मतः ।। - मनु स्मृति 7- 139-140

अर्थात - (प्रशासन) कर न ले कर अपने मूल का उच्छेद न करे और अधिक लोभ वश प्रजा का मूलोच्छेदन भी न करे क्यों कि मूलोच्छेद से अपने को और प्रजा को पीड़ा होती है। कार्य को देख कर कोमल और कठोर होना चाहिये। समयानुसार राजा( प्रशासन) का कोमल और कठोर होना सभी को अच्छा लगता है।

अत्यन्त प्राचीन काल में लिखे गये मनुसमृति के ये श्र्लोक आज भी अत्यन्त ही प्रासंगिक हैं और आजकल के उन नेताओं के लिये भी अत्यन्त महत्वपूर्ण व महत्वशाली हैं जो चुनावों से पहले खास मजहब के लिए शिक्षण व चिकित्सीय संसथान , हज सब्सिडी , लेप-टाप, मुफ्त बिजली-पानी, और तरह तरह के लोक लुभावन वादे करते हैं और स्वार्थवश बिना सोचे समझे देश के बजट का संतुलन बिगाड देते हैं। अगर उन्हें जनता की बुनियादी जरुरियातों , आवश्याकताओं का अहसास है तो सत्ता समभालने के समय से ही जरूरी वस्तुओं का उत्पादन बढायें, वितरण प्रणाली सें सुधार करें, उन वस्तुओं पर सरकारी टैक्स कम करें नाकि उन वस्तुओं को फोकट में बाँट कर, जनता को रिशवत के बहाने अपने लिये वोट संचय करना शुरु कर दें। अगर लोगों को सभी कुछ मुफ्त पाने की लत पड जायेगी तो फिर काम करने और कर देने के लिये कोई भी व्यक्ति तैयार नहीं होगा।
सिवाय भारत के आजकल पानी और बिजली जैसी सुविधायें संसार मे कहीं भी मुफ्त नहीं मिलतीं। उन्हें पैदा करने, संचित करने और फिर दूरदराज तक पहुँचाने में, उन का लेखा जोखा रखने में काफी खर्चा होता है। अगर सभी सुविधायें मुफ्त में देनी शुरू हो जायें गी तो ऐक तरफ तो उन की खपत बढ जाये गी और दूसरी तरफ सरकार पर बोझ निरंकुशता के साथ बढने लगेगा। क्या जरूरी नहीं कि इस विषय पर विचार किया जाये और सरकारी तंत्र की इस सार्वजनिक लूट पर अंकुश लगाया जाये। अगर ऐसा नहीं किया गया तो फोकट मार लोग देश को दीमक की तरह खोखला करते रहैं गे और ऐक दिन चाट जायेंगे।
आरक्षण और सबसिडी आदि दे कर अर्थात खैरात बांटकर चुनाव तो जीता जा सकता है, परन्तु वह समस्या का समाधान नहीं है। इस प्रकार की बातें समस्याओं को और जटिल कर देंगी। इमानदार और मेहनत से धन कमाने वालों को ही इस तरह का बोझा उठाना पडेगा जो कभी कम नहीं होगा और बढता ही जायेगा।

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