Saturday, July 11, 2015

दालों का आयात दीर्घकालिक उपाय नहीं - अशोक "प्रवृद्ध"

राँची झारखण्ड से प्रकाशित दैनिक समाचार पत्र राष्ट्रीय खबर के सम्पादकीय पृष्ठ पर दिनांक- ११ जुलाई २०१५ को प्रकाशित लेख - दालों का आयात दीर्घकालिक उपाय नहीं - अशोक "प्रवृद्ध"
राष्ट्रीय खबर , दिनांक - ११ जुलाई २०१५ 

 दालों का आयात दीर्घकालिक उपाय नहीं
 - अशोक "प्रवृद्ध"


देश में दालों की उपलब्धता सुनिश्चित करने और कीमतों पर अंकुश लगाने के लिए सरकार 5,000 टन उड़द और 5,000 टन तुअर दाल का आयात करने जा रही हे। उड़द दाल के साथ 5,000 टन तुअर के आयात के लिए सरकार पहले ही निविदा जारी कर चुकी है। उपभोक्ता मामलों के सचिव सी विश्वनाथ ने महंगाई पर राज्यों के खाद्य मंत्रियों के साथ इस सम्बन्ध में हुई बैठक में कहा कि कुछ आवश्यक वस्तुओं में हम महंगाई बढ़ते हुए देख रहे हैं। देश में दालों की आपूर्ति बढ़ाने के लिए हमने 500 टन उड़द दाल का आयात करने पर विचार कर रहे हैं। हमने 5000 टन तुअर आयात के लिए जो निविदा जारी की थी, वह इसी सिंतबर तक हमारे पास आ जाएगी ऐसी हम उम्मीद करते हैं। दरअसल प्रतिकूल मौसम के कारण देश में दलहन उत्पादन 200 लाख टन के नीचे आ गया है। दालों की कीमत पिछले वर्ष के मुकाबले 64 प्रतिशत तक मंहगी हो गई है। बाजार में अधिकतर दालों के खुदरा भाव अभी 100 रूपए किलोग्र्राम हो गया है, और दालों की बढ़ती कीमतों से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी चिंतित है। प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी की अध्यक्षता में गत दिनों हुई कैबिनेट की बैठक में बड़ा फैसला लेते हुए निर्देश दिए गए थे कि दाल की बढ़ती कीमतों पर लगाम लगाने के लिए बड़े पैमाने पर आयात किया जाए। साथ ही राज्यों को जमाखोरों पर कार्रवाई करने को कहा गया । खाद्य और उपभोक्ता मामलों के मंत्री राम विलास पासवान का कहना है कि सरकार बढ़ती दालों की कीमतों पर बहुत गम्भीर है। देश में दालों का उत्पादन घटा है जिसके कारण कीमतें बढ़ गई है। ऐसे में जितनी आवश्यकता होगी हम दालों का आयात करेंगे। कैबिनेट की बैठक के बाद परिवहन मंत्री मंत्री नितिन गडकरी ने कहा कि कैबिनेट ने बढ़ती दालों की कीमतों के बारे में बातचीत की और चिंता व्यक्त की है, और दालों की कीमतों पर काबू पाने के लिए बड़े पैमाने पर आयात करने का निर्देश दिया है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार 2014-15 जुलाई-जून फसल वर्ष के दौरान देश में दलहन उत्पादन घटकर 173.8 लाख टन रहने का अनुमान है। कमजोर मानसून और इस साल मार्च-अप्रैल में हुए बेमौसम बारिश के कारण दलहन का उत्पादन गिरा है।

ध्यातव्य है कि हाल में ही केन्द्रीय मन्त्रीमण्डल में खाद्य वस्तुओं की उपलब्धता सुनिश्चित करने और कीमतों पर अंकुश लगाने के लिए यह निर्णय लिया गया था और उक्त निर्णयानुसार ही सरकार के द्वारा दाल की उपलब्धता सुनिश्चित करने के उद्देश्य से ये उपाय किये जा रहे हैं। आर्थिक विशेषज्ञों का कहना है कि सरकार के पास दालों का आयात करना ही फिलहाल सबसे कारगर विकल्प था, अतः इस बारे में केन्द्रीय मन्त्रीमण्डल का फैसला स्वागतयोग्य है। आम जन कहना है कि दालों की कीमतें हाल में तेजी से चढ़ी हैं। स्वयं सरकार ने भी माना है कि गत एक वर्ष में दालों के दाम में 64 प्रतिशत बढ़ोतरी हुई। इस बात से चिंतित कैबिनेट के द्वारा बड़ी मात्रा में दालों के आयात का निर्णय लिया जाना जनहित में स्वागतयोग्य कदम है । भारत दालों की पैदावार के मामले में वैसे भी आत्मनिर्भर नहीं है और  देश में वैसे भी दलहन का उत्पादन खपत से बहुत कम है I इसलिए सामान्य स्थितियों में भी निजी व्यापार के तहत प्रतिवर्ष 40 लाख टन दलहन का आयात होता है। खेती के पिछले मौसम में पहले कमजोर मानसून और बाद में बेमौसमी बारिश की वजह से हालत ज्यादा बिगड़ गई। पिछले वर्ष खराब मौसम होने के कारण दलहन उत्पादन में भारी कमी आई। कृषि विशेषज्ञों के मुताबिक अपने देश में दलहन की खेती अधिकतर वर्षा सिंचित क्षेत्रों में होती है। यानी मानसून की स्थिति से इसकी पैदावार सीधे प्रभावित होती है। कृषि वर्ष 2014-15 के दौरान सामान्य से कम मानसून के कारण दलहन का घरेलू उत्पादन गिरा। खाद्य एवं उपभोक्ता मामलों के मंत्री रामविलास पासवान के मुताबिक जुलाई 2014 से जून 2015 के बीच दलहन की पैदावार महज 1,73,80,000 टन रह गई, जबकि उसके पिछले एक वर्ष में 1,92,50,000 टन दालें देश में पैदा हुई थीं। नतीजतन, उड़द, तूअर, मसूर, चना और मूंग दालों के दामों में भारी उछाल देखा गया। उत्पादन कम हुआ तो जमाखोरों की भी बन आई। भंडार में पड़ी दालों को बाजार में लाने की बजाय उन्होंने कृत्रिम अभाव भी उत्पन्न किया है। नतीजतन, गरीब तबकों की बात तो दूर, निम्न मध्यम वर्ग की थाली से भी यह जरूरी खाद्य गायब होता गया है।
एक लम्बी उहापोह के बाद दालों की कीमत पर अंकुश लगाने लिए सरकार के द्वारा आयात करने का निर्णय लिए जाने से स्थिति अब स्पष्ट हो गयी। अभी तक बेमौसम बरसात से खराब हो गये दलहन व अन्य फसलों के कारण केन्द्र सरकार, राज्य सरकारों और आम उपभोक्ताओं , किसानों के बीच बड़ी उलझन, खींचतान और अनिश्चितता की स्थिति चल रही थी। जिससे अब निजात मिलने की उम्मीद बढ़ गई है । दरअसल पिछले एक वर्ष में दाल की कीमतों में लगातार हो रही बढ़ोत्तरी सरकार के लिए एक बड़ा सिरदर्द बनती जा रही हैं। पिछले एक वर्ष में अलग-अलग दाल की कीमतें 35 से 60 प्रतिशत तक बढ़ी हैं, और अब बड़े स्तर पर आयात कर दाल की उपलब्घता बाजार में बढ़ाने की तैयारी है। दरअसल दाल के दाम थामने में केन्द्र सरकार अब तक नाकाम रही है। स्वयं खाद्य मंत्रालय के ही आंकड़ों के अनुसार 26 मई 2014 को उड़द दाल की कीमत 71 रूपये किलोग्राम थी जो इस वर्ष 9 जून को 114 रूपये हो गई यानी 60 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी। इस दौरान अरहर दाल की कीमत 75 रुपये से बढ़कर 115 रुपये तक पहुँच गई, यानी एक साल में अरहर दाल 53 प्रतिशत महँगी हुई। इस एक साल में चना दाल भी 40 प्रतिशत महँगी हुई। मई 2014 में चना दाल का भाव 50 रुपये प्रति किलोग्राम था, जो 9 जून को बढ़कर 70 रुपये किलोग्राम हो गया, जबकि इस दौरान मसूर दाल की कीमत 70 रुपये प्रति किलोग्राम से बढ़कर 94 रुपये प्रति किलोग्राम तक पहुँच गई। बड़े बुजुर्गों का कहना है कि गत 40 -50 वर्षों में दाल की कीमतों में इतने लम्बे समय तक तेज़ी नहीं देखी जैसी पिछले एक वर्ष में दिखाई दी है ।

उल्लेखनीय है कि लम्बे समय से देश में दालों का अभाव बना ही हुआ है। देश का दाल उत्पादन हमारी जरूरत से 40 प्रतिशत कम पूर्व से ही चला ही आ रहा है और इस वर्ष फसलों पर बेमौसम बरसात, ओले, आंधी व हवा की मार से दालों का अभाव और बढ़ गया। अभी तक 40 प्रतिशत का अभाव चल रहा है और अब दालों के भावों में एक साल में 40 प्रतिशत भाव भी बढ़ गये हैं। अभाव और मूल्यों दोनों में 40 का आंकड़ा कदमताल कर रहा है। सभी दालों की कीमतें पिछले वर्ष की तुलना में 40 से 61 प्रतिशत तक बढ़ चुकी है। वजह भी यही है देश में उत्पादन और ज्यादा घट गया है और जिन देशों से न्यूजीलैंड, आस्ट्रेलिया, म्यानमार से आयात होता है वहां भी दालों की फसल कमजोर आयी हैं और भाव ऊंचे चल रहे हैं।

बहरहाल भारत जैसे देश में, जहां आबादी के बहुत बड़े हिस्से को मांसाहार से परहेज है, दालें ही आम इंसान के लिए प्रोटीन का प्रमुख स्रोत हैं। ऐसे में दालों की महंगाई का मारक असर होता है। अफसोस की बात है कि सरकारों के इस तथ्य से परिचित रहने के बावजूद दालों की खेती का क्षेत्र बढ़ाने तथा दलहन की फसल को मौसम की मार से बचाने के पर्याप्त उपाय आज तक नहीं हुए। एनडीए सरकार के सामने इस लक्ष्य को हासिल करना बड़ी चुनौती है। आयात दीर्घकालिक विकल्प नहीं हो सकता। अतः फिलहाल उत्पन्न आपात स्थिति से निपटने के लिए दिखाई गई सरकारी तत्परता तो उचित है, मगर इसके साथ ही ऐसे प्रभावी कदम भी उठाए जाने चाहिए ताकि आने वाले वर्षों में आयात की आवश्यकता न पड़े।

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