Monday, July 13, 2015

कहानी लंगड़ा आम की

कांगड़ा हिमाचल प्रदेश से प्रकाशित होने वाली दैनिक समाचार पत्र दिव्य हिमाचल के प्रतिविम्ब पृष्ठ , पृष्ठ संख्या 9 पर दिनांक - 5 जुलाई 2015 को प्रकाशित लेख -कहानी लंगड़ा आम की
दिव्य हिमाचल , दिनांक- ५ जुलाई २०१५ 


कहानी लंगड़ा आम की
यूं तो बनारस आज भी बहुत सी चीजों के लिए लोकप्रिय है, मशहूर है, तथापि जिस चीज के लिए वह सारे उत्तर भारत में प्रसिद्ध है, वह है बनारस का लंगड़ा आम, जिसे देखते ही लोगों के मुंह में पानी आ जाता है। लोग उसे किसी भी कीमत पर खरीदने को तैयार हो जाते हैं। बनारस के लंगड़ा आम की जन्म कथा भी रोचक है।लंगड़ा आम की नामकरण कथालगभग अढ़ाई सौ वर्ष पूर्व की घटना है। कहते हैं बनारस के एक छोटे से शिव मंदिर में एक साधु आया और मंदिर  के पुजारी से वहां कुछ दिन ठहरने की आज्ञा मांगी। मंदिर परिसर में लगभग एक एकड़ जमीन थी, जो चार दीवारियों से घिरी हुई थी । साधु के पूछने पर पुजारी ने कहा, मंदिर परिसर में कई कक्ष हैं, किसी में भी ठहर जाएं। साधु ने एक कमरे में अपनी धूनी रमा दी।साधु के पास आम के दो छोटे-छोटे पौधे थे, जो उसने मंदिर के पीछे अपने हाथों से रोप दिए। सुबह उठते ही वह सर्वप्रथम उनको पानी दिया करता, जैसा कि कण्व ऋषि के आश्रम में रहते हुए कालिदास की शकुंतला नित्यप्रति  किया करती थी। साधु ने बड़े मनोयोग के साथ उन पौधों की देखरेख की। वह चार साल तक वहां ठहरा। इन चार वर्षों में पेड़ काफी बड़े हो गए। चौथे वर्ष आम की मंजरियां भी निकल आईं, जिन्हें तोड़कर उस साधु ने भगवान शंकर को अर्पित कर दी। फिर वह पुजारी से बोला, मेरा काम पूरा हो गया। मैं तो रमता जोगी हूं, कल सुबह ही बनारस छोड़ दूंगा। तुम इन पौधों की देखरेख करना और इनमें फल लगें तो उन्हें कई भागों में काटकर भगवान शंकर पर चढ़ा देना। फिर प्रसाद के रूप में भक्तों में बांट देना,लेकिन भूलकर भी समूचा आम किसी को मत देना।  किसी को न तो वृक्ष की कलम लगाने देना और न ही गुठली देना। गुठलियों को जला डालना वरना लोग उसे रोपकर पौधे बना लेंगे और वह साधु बनारस से चला गया। मंदिर के पुजारी ने बड़े चाव से उन पौधों की देखरेख की। कुछ समय पश्चात पौधे पूरे वृक्ष बन गए। हर साल उनमें काफी फल लगने लगे। पुजारी ने वैसा ही किया, जैसा कि साधु ने कहा था। जिन लोगों ने उस आम को प्रसाद के रूप में खाया, वे लोग उस आम के स्वाद के दीवाने हो गए। लोगों ने बार-बार पुजारी से पूरा आम देने की याचना की, ताकि उसकी गुठली लाकर वे उसका पौधा बना सकें, परंतु पुजारी ने ऐसा करने से साफ इनकार कर दिया। इस आम की चर्चा काशी नरेश के कानों तक पहुंची और वह एक दिन स्वयं वृक्षों को देखने रामनगर से मंदिर में आ पहुंचे। उन्होंने श्रद्धापूर्वक भगवान शिव की पूजा की और वृक्षों का निरीक्षण किया। फिर पुजारी के समक्ष यह प्रस्ताव रखा कि इनकी कलमें लगाने की अनुमति प्रधान माली को दे दें। पुजारी ने कहा, आपकी आज्ञा को मैं भला कैसे टाल सकता हूं? मैं आज ही सांध्य-पूजा के समय भगवान शंकर से प्रार्थना करूंगा और उनका संकेत पाकर स्वयं कल महल में आकर महाराज का दर्शन करूंगा और मंदिर का प्रसाद भी लेता आऊंगा। इसी रात भगवान शंकर ने स्वप्न दिया काशी नरेश के अनुरोध को मेरी आज्ञा मानकर वृक्षों में कलम लगवाने दो। वह जितनी भी कलमें चाहते हैं उतनी कलमें दे दो।  तुम इसमें रुकावट मत डालना। वह काशीराज हैं और एक प्रकार से इस नगर में हमारे प्रतिनिधि स्वरूप हैं। दूसरे दिन प्रातःकाल की पूजा समाप्त कर प्रसाद रूप में आम के टोकरे लेकर पुजारी काशी नरेश के पास पहुंचा। राजा ने प्रसाद को तत्काल ग्रहण किया और उसमें एक अलौकिक स्वाद पाया। काशी नरेश के प्रधान माली ने जाकर आम के वृक्षों में कई कलमें लगा दीं, जिनमें वर्षाकाल के बाद काफी जड़ें निकली हुई पाई गईं। कलमों को काटकर महाराज के पास लाया गया और उनके आदेश पर उन्हें महल के परिसर में रोप दिया गया। कुछ ही वर्षों में वे वृक्ष बनकर फल देने लगे। कलम द्वारा अनेक वृक्ष पैदा किए गए। महल के बाहर उनका एक छोटा सा बाग बनवा दिया गया। कालांतर में इनसे अन्य वृक्ष उत्पन्न हुए और इस तरह रामनगर में लंगड़े आम के अनेकानेक बड़े-बड़े बाग बन गए। आज भी जिन्हें बनारस के आसपास या शहर के खुले स्थानों में जाने या घूमने का अवसर प्राप्त हुआ होगा, उन्हें लंगड़े आम के वृक्षों और बागों की भरमार नजर आई होगी। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के विस्तृत विशाल प्रांगण में लंगड़े आम के सैकड़ों पेड़ हैं। साधु द्वारा लगाए हुए पौधों की समुचित देखरेख जिस पुजारी ने की थी, वह लंगड़ा था और इसीलिए इन वृक्षों से पैदा हुए आम का नाम लंगड़ा पड़ गया। आज तक इस जाति के आम सारे भारतवर्ष में इसी नाम से अर्थात लंगड़ा आम के नाम से प्रसिद्ध हैं।

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