Tuesday, November 18, 2014

वैदिक मान्यतानुसार ऐसे हुई छंदों की उत्पत्ति - अशोक “प्रवृद्ध”


विगत कल दिनांक - १७ / ११ / २०१४ और आज दिनांक - १८ / ११ / २०१४ को रांची , झारखण्ड से प्रकाशित होने वाली दैनिक समाचार पत्र राष्ट्रीय खबर में प्रकाशित लेख - वैदिक मान्यतानुसार ऐसे हुई छंदों की उत्पत्ति 

वैदिक मान्यतानुसार ऐसे हुई छंदों की उत्पत्ति 
- अशोक “प्रवृद्ध”

यह सर्वविदित है कि आदिग्रन्थ वेद के छः अंग हैं , इनमें अंग विद्याओं का वर्णन करते है और तीन भाषा के विषय में कहे हैं l वेद की विषय - वस्तु तीन ही हैं – शिक्षा , कल्प तथा ज्योतिष . इन तीन में ही संसार के सब तत्वों का वर्णन आ जाता है l वेद के तीन अन्य विषय – छन्द , व्याकरण और निरूक्त तो वेद की वर्णन शैली के विषय में हैं l 

पुरातन वैदिक ग्रंथों के अध्ययन से इस सत्य का उदघाटन होता है कि सृष्टि - रचना का कार्य जब आरम्भ हुआ , उस समय से ही वेद वर्तमान रूप में उपलब्ध हैं , ऐसा कदापि भी नहीं कहा जा सकता और यह संभव भी नहीं है l वेद ज्ञान अपौरूषेय हैं , अर्थात ज्ञान रूप में वह सदा से है l मनुष्य में जीवात्मा भी पुरूष कहाता है और परमात्मा भी पुरूष है l इस कारण जब किसी वास्तु को अपौरूषेय कहा जाये तो इसका अभिप्राय यह हुआ कि वह न परमात्मा का कहा होगा न किसी मनुष्य का l तब यह कैसे प्रकट हुआ ? इस विषय में ऋग्वेद में यह अंकित है -

कासीत्प्रमा प्रतिमा किं निदानमाज्यं किमासीत्परिधि: क आसीत्`l
छन्द: किमासीत्प्रउगं किमुक्थं यद्देवा देवमजयन्त विश्वे ll
-ऋग्वेद १० / १३० / ३ 

(यत् विश्वे देवाः देवम् अज्यन्त्)जब सम्पूर्ण देवता परमात्मा का यजन (परमात्मा द्वारा चलाये लोक कल्याण के कार्य को) करते हैं (तब) (का आसीत् प्रमा प्रतिमा) जो स्वरुप बना था , उसका प्रमाण (नाप  ) क्या था ? (किम् निदानाम् आज्यं) (इस निर्धारण) का कारण और निर्माण में (पदार्थ) क्या था ? (किम् आसीत् परिधिः) (उस निर्माण का घेरा) कितना बड़ा था ? (छन्दः किम् आसीत् प्रउगं) छन्द क्या थे जो गाये जा रहे थे (किम् उक्थं) वे छन्द क्या कहते थे ?

अर्थात , सृष्टि - रचना में जब देवता (अग्नि , वायु , सूर्य , बृहस्पति इत्यादि) बन गए , तब वे किस प्रकार परमात्मा के रचना यज्ञ को आगे चला रहे थे ? कितना बड़ा जगत , कितनी बड़ी परिधि को उन्होंने बनाया था ? अभिप्राय यह कि यह बहुत बड़ा था और इसको बनाने में सामग्री वस्तु क्या प्रयोग कि थी ?

सामग्री के विषय में तो सांख्य दर्शन में अंकित है l सांख्य दर्शन में कहा है कि प्रकृति के परमाणु साम्यावस्था में थे l वेदों मंा भी ऋग्वेद १- १६३ – ३ में “सोमेन समया” साम्यावस्था प्रकृति को ही रचना में “आज्यं” कहा है l 
ऋग्वेद के इस मन्त्र में कहा है कि जगत प्रकृति से बना था और बहुत लंबा - चौड़ा था उस समय देवता परमात्मा के कार्य को आगे चला रहे थे l
जगत जिसमे हमारा सौर - मण्डल एक बहुत ही छोटा सा भाग है , उसकी परिधि और मान अब जानने का यत्न किया गया है l 
यह सर्वविदित है कि यदि जगत के एक सिरे से दूसरे सिरे तक जाने के लिए हम प्रकाश की गति १,८६,३०० मील प्रति सेकण्ड से भागें तो ६०,००,००,००० (साठ करोड़) वर्ष लग जायेंगे l
इस जगत में (आकाश गंगा) में नक्षत्रों और ग्रहों की संख्या लगभग १०,००,००,००,००० है l
यह आकाश गंगा हमारा जगत है l इसमें सौर - मंडल कितना छोटा सा है , इसका अनुमान इससे लग जायेगा कि आकाश गंगा एक चपटी सी तश्तरी की भान्ति फैलाव में है और यह अपने केन्द्र में घूम रही है l हमारा सौर मंडल भी इस प्रपंच में घूम रहा है l यह अनुमान है कि सौर -मंडल को इस महाचक्र में घूमते हुए चक्र पूर्ण करने में २०,००,००,००० (बीस करोड़) वर्ष लग जायेंगे l

आदिग्रन्थ वेद इस पूर्ण जगत का ही वर्णन करता है l यहाँ यह भी विदित होना चाहिए कि इस जगत से बाहर और भी जगत हैं l परन्तु वेद जो हमें मिले हैं , वे इस जगत का वर्णन कर रहे हैं l कहा है कि इस जगत के देवता (दिव्य पदार्थ) जब बन गए तो छन्द उच्चारण करने लगे l वे छन्द क्या थे ? किस – किस ने उच्चारण किये ? यह अगले मन्त्रों में कहा है l मन्त्र इस प्रकार है - 


" अग्नेगार्यत्र्यभवत्सयुरवोष्णिहया सविता सं बभूव l
अनुष्टुभा सोम उक्थैर्महस्वान्बृहस्पतयेबृँहती वाचमावत् ll
विराण्मित्रावरुणयोरभिश्रीरिन्द्रस्य त्रिष्टुबिह भागो अह्ण्:l
विश्वान्देवाञगत्या विवेश तेन चाक्लृप्र ऋषयो मनुष्या: ll"

ऋ: १० -१३० -४, ५

उस समय (जिसका कथन पूर्व मंत्र १० – १३०- ३ में है (अग्ने सयुग्वा गायत्री) अग्नि के साथ गायत्री छन्द का सम्बन्ध (अभवत्) उत्पन्न हुआ l 
(उष्णिह्या सविता सं बभूव) उष्नितासे सविता का (सम्बद्ध) हो गया l (उक्थै :अनुष्टुभा महस्वान् सोमः) ओजस्वी छन्द से सम्बद्ध अनुश्तुभ छन्द होते हैं l (बृहस्पते : बृहती वाचम् अवत्) बृहस्पति से बृहती छन्द आती है l
(विराट मित्रावरूणयो :) विराट छन्द मित्र और वरुण से l (अभिश्री:) आश्रित होते हैं l (अह्नः भागः) दिन के समय l (त्रिष्टुप् इन्द्रस्य) इन्द्र का (सम्बन्ध है) त्रिष्टुप से l (विश्वान् देवान जगती आविवेश) सम्पूर्ण देवताओं का जगाती छन्द व्याप्त हुआ l  (तेन चाक्लृप ऋषयः मनुष्याः) उन (छन्दों) से ज्ञानवान हुए ऋषि और मनुष्य l

ऋषि और मनुष्य कैसे ज्ञानवान् हुए ? ऋग्वेद में यह भी बताया गया है -

चाकॢप्रे तेन ऋषयो मनुष्या यज्ञे जाते पितरो नः पुराणे ।
पश्यन्मन्ये मनसा चक्षसा तान्य इमं यज्ञमयजन्त पूर्वे ॥
-ऋग्वेद - १० - १३० – ६

अर्थात - (तेन चाकॢप्रे) उन (छन्दों) से ज्ञानवान होकर l(मनसा चक्षसा) मानसिक आखों से (ऋषयः मनुष्याः) ऋषि , मनुष्य l (पितरः न पुराणे) हमारे पुरा काल में उत्पन्न पितर l (यज्ञे जाते) जो रचना के समय उत्पन्न हुए थे l (पूर्वे पश्यन् अन्ये) पूर्व काल में दूसरे देखते हुए (मनसः चक्षसः) मन के चक्षुओं से l (तान्) उनको (इमं यज्ञमयजन्त) इस हो रहे यज्ञ में l

इन चार मन्त्रों  में  किस प्रकार वेद मनुष्यों तक पहुंचे , इसका वर्णन है l रचना –क्रम में जब देवता बन गए तब अग्नि से गायत्री छन्द , उष्निग् छन्द सविता से , अनुष्टुभ छन्द सोम से और बृहती छन्द बृहस्पति से आश्रय पाकर प्रसारित हुए l वरुण और मित्र से विराट् , त्रिष्टुप इन्द्र से दिन के समय और सब देवताओं से जगाती छन्द आश्रय पा गए l अर्थात –
१. गायत्री छन्द अग्नि के सहाय से ,
२. उष्निग् छन्द सविता के सहाय से ,
३. अनुष्टुभ छन्द सोम के सहाय से , 
४. बृहती छन्द बृहस्पति के सहाय से ,
५. विराट् छन्द अग्नि और मित्र से ,
६. त्रिष्टुप इन्द्र से ,
७. जगती छन्द सब देवताओं से l

इस प्रकार वेद के सात छन्द हैं l शेष इनके उपछन्द हैं l ये इन देवताओं के सहाय से प्रकट हुए l
ये छन्द ऋषियों ने अपने मन के चक्षुओं से अनुभव किये और उनको समझकर स्वयं ज्ञानवान हुए तथा रचना - यज्ञ में उत्पन्न हुए मनुष्य , पितर और पूर्व के  अन्य लोग ज्ञानवान हुए l
इन मन्त्रों में इन सब ज्ञानवान होने वालों के लिए “यज्ञे जाते” कहा है l इसका अर्थ है कि जो सृष्टि- रचना के साथ उत्पन्न हुए l इसका अभिप्राय यह है कि अमैथुनी सृष्ट से उत्पन्न हुए l

इन मन्त्रों में एक और शब्द आया है - “सयुग्वा” , इसका अर्थ है सहयोग से l अभिप्राय यह है कि इन छन्दों को उच्चारण करने वाले तो ये देवता थे परन्तु ये केवल सहयोग ही दे रहे थे l किसको ? परमात्मा को l किस प्रकार सहयोग दे रहे थे ? जैसे हमारा मुख और गले में स्वर - यन्त्र आत्मा के कहे शब्द उच्चारण करते हैं l मुख और गला तो प्रकृति के अंश हैं , ये जीवात्मा के आदेश पर बोलने लगते हैं l वैसे ही परमात्मा के आदेश पर देवता बोलने लगते हैं l


परन्तु ऋषियों और मनुष्यों ने जब इनको सामान्य जनों को दिया तो एक भाषा में दिया l उस भाषा का नाम राष्ट्री है और वेद में उसके प्रकट होने का वृत्तांत भी अंकित है l वेद में कहा है - 

यद्वाग् वदन्त्यविचेतानि राष्ट्री देवानां निषसाद मन्द्रा l
चतश्र ऊर्जं दुदुहे पयांसि क्व स्विदस्याः परमं जगाम ll
देवीं वाचमजनयन्त देवास्तां विश्वरूपाः पशवो वदन्ति l
सा नो मन्द्रेष दुहाना धेनुर्वागस्मानुप सृष्टर्ततु ll

- ऋग्वेद ८ - १०९ -१०, ११ 

अर्थात – (यत् वाक् अविचेतानि वदन्ति) जब वाणी जो विशेष अर्थ वाली नहीं (सामान्य अर्थों को कहती है) (देवानां निषसाद्) देवताओं (दिव्य पदार्थों) में स्थापित हो जाती है l (तब) (चतश्रः ऊर्जः) चरों दिशाओं में शक्ति रूप में l (दुदुहे पयांसि) विविध ज्ञान दुहती l (क्वसित् अस्याः परमं जगाम मन्द्रा) यह परम आनंद को देने वाली है l 
(देवाः देवीं वाचम अजयन्त) देवता उस दिव्य वाणी को प्रकट करते हैं l (विश्वरूपाः पशवो वदन्ति) सभी प्राणी उसे बोलते हैं l (सा नः मन्द्रा इषं ऊर्जं दुहाना धेनुः) वह हमें हर्षोंत्पादक अन्न और उर्जा ऐसे देती है जैसे गाय दूध देती है l (ताः अस्मान् उप एतु सुष्टता) वह वाणी हमको सेवा के लिए प्राप्त हो l 

इस प्रकार वेद में वाणी का और वेद के छन्दों का पृथ्वी पर आने का वर्णन मिलता है l यह इस प्रकार कि पहले राष्ट्री भाषा परमात्मा की कृपा से और देवताओं की सहायता से उच्चारित हुई और वह शक्ति की भान्ति चरों दिशाओं में फ़ैल गई l हमने उसका ऐसे पान किया जैसे गाय के स्तनों से निकल रहा दूध पान करते हैं l यह वाणी सामान्य थी l यह वेद की भान्ति ज्ञान वाली नहीं थी l सामान्य पदार्थों के विषय में बताने वाली थी l जब मनुष्य इस वाणी को सीख गया तब देवताओं द्वारा उच्चारित हो रहे छन्द रश्मियों (तरंगों) की भान्ति प्रसारित होने लगे l उन तरंगों को ऋषियों ने समझा और स्वयं उनका अर्थ समझकर वे ज्ञानवान हुए और जब प्रथम अमैथुनी मानव - सृष्टि हुई तो उसको ज्ञानवान् किया l तदनंतर मनुष्य जो उनसे पीछे पैदा हुए , ज्ञानवान् हुए l 

वेदों के जन्म की और वेद ज्ञान के मनुष्य को मिलने की यह प्रक्रिया है l
साथ ही वेद , ऋग्वेद १० – १३० – ३ में कहा गया है कि जब रचना क्रम में देवता बन गए तो छन्द उच्चारण होने लगे , परन्तु मनुष्य तो उसके बाद उत्पन्न हुआ l
पृथ्वी बनी तो देवताओं के साथ ही थी l पृथ्वी भी एक देवता है , परन्तु बनने के समय पृथ्वी अति उष्ण थी l यह भी वर्णन मिलता है कि आरम्भ में यह तरल (अर्द्ध ठोस) थी l बाद में यह ठंडी हुई और इसका ऊपर का छिलका कड़ा हो गया l तदनन्तर सूर्य और सोम की सहायता से वनस्पति उत्पन्न हुई और तब पहले पशु - पक्षी इत्यादि बने और अन्त में मनुष्य उत्पन्न हुए l 
वेद को सुनने और समझने वाले तब ही हुए l ऊपर वर्णित सृष्टि – क्रम से यह प्रतीत होता है कि द्वितीय मन्वंतर में छन्द उच्चारण होने आरम्भ हुए और वर्तमान विवस्वत्सुत मन्वन्तर में मनुष्य उत्पन्न हुए तो वेदों का वर्तमान स्वरुप बना l ऋषि – मुनियों एवं विद्वतजनों के विचार में वर्तमान चतुर्युगी के आरंभ में मानव सृष्टि उत्पन हुई और इसे लगभग ३८ (अड़तीस) लाख वर्ष हुए हैं l उसी समय वेदों का वर्तमान स्वरुप बना l वर्तमान स्वरुप से अभिप्राय है वेदों का इस भाषा में कहा जाना जिसे हम आज वैदिक भाषा कहते हैं l 
आज से अड़तीस लख वर्ष पूर्व ऋषि जो अमैथुनी सृष्टि की उपज थे , उन्होंने इन वेदों को सुना और उस समय और उस समय उपस्थित मनुष्यों को उनसे ज्ञानवान् कराया l
लेख में पूर्व में ही इस बात का उल्लेख हो चुका है कि राष्ट्री भाषा (सामान्य उपस्थित पदार्थों का ज्ञान कराने वाली भाषा) पहले प्रकट हुई l पीछे उस भाषा में वेद और वेदार्थ प्रकट किये गए l दोनों के आविर्भाव में कितने काल का अन्तर था , यद्यपि इस विषय में ठीक- ठीक नहीं बताया जा सकता है , फिर भी इतना तो कहा ही जा सकता है कि यह अन्तर कुछ अधिक नहीं रहा होगा l यह इस कारण कि वेदवाणी जो बाद में आयी वह (यज्ञे जातः) रचना में अमैथुनी ढंग से उत्पन्न हुए लोगों की समझ में आयी l इसका अर्थ है कि मानव सृष्टि - रचना के प्रारंभिक काल में ही वेद वर्तमान रूप में आये l

आरम्भ में ये छन्द पदों और मन्त्रों में आये l इस विषय में भी वेद में कहा है l एक मन्त्र ऋग्वेद १ – १६४ – ४१ में कहा है –
गौरीर्मिमाय सलिलानि तक्षत्येकपदी द्विपदी सा चतुष्पदी ।
अष्टापदी नवपदी बभूवुषी सहस्राक्षरा परमे व्योमन् ॥
- ऋग्वेद १ - १६४ - ४१

अर्थात – (गौरीः मिमाय सलिलानि) गाय के समान वेद वाणी मिमियाती अर्थात शब्द करती हुई जो तरल थी l (तक्षती एकपदी द्विपदी चतुष्पदी अष्टापदी नवपदी) वह वाणी एक पद ,दो पद , आठ पदों और नौ पदों में काटकर आयी l (सहस्त्राक्षरा परमे व्योमन्) सहस्त्रों अक्षरों में व्योम में से  अभिप्राय यह है कि वेद वाणी कट – कट कट पदों में आयी और वे मन्त्र बन गए , परन्तु  ऋषियों ने मन्त्रों को सूक्तों , अनुवाकों इत्यादि में बांटने का कार्य बाद में किया, जिससे वे किसी विषय को प्रकट कर सकें l

इनके सूक्तादि विभाग मानवकृत हैं l ये बदले भी जा सकते हैं l सूक्तों में विभाजन तथा सूक्तों और मन्त्रों के देवता का निश्चय कालान्तर में मन्त्रों का भाव समझकर किया गया है l

वर्तमान चतुर्युगी के आरम्भ में तो वेद पदों और मन्त्रों में ही आये , परन्तु बाद में इनको विषयानुसार बांधा गया l व्यास नाम से ऋषि अथवा ऋषियों ने यह व्यवस्था की, यह परम्परा है l. भारतीय पुरातन ग्रंथों के अध्ययन से इस सत्य का सत्यापन होता है कि एक व्यास हुए हैं जिन्होंने महाभारत लिखा है l परन्तु उन सत्यवती – नन्दन व्यास के अतिरिक्त भी कई और व्यास हुए हैं l वायु पुराण में लिखा है कि द्वापर युग में बीस से अधिक व्याप्त हुए हैं l व्यास वेदों के विद्वानों की एक उपाधि रही है lअतः यह नहीं कहा जा सकता कि किस व्यास ने और किस काल में  वेद मन्त्रों को अनुवाकों और सूक्तों में बाँटा है l

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