Wednesday, November 26, 2014

ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका में हैं वेदो मे विमान विद्या का वर्णन

ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका में हैं वेदो मे विमान विद्या का वर्णन 

अथ नौविमानादिविद्याविषयस्संक्षेपत: ||
तुग्रो ह भुज्युमश्र्विनोदमेघे रयिं न कश्र्चिन्ममृवां अवाहाः ।
तमूहथुर्नौभिरात्मन्वती भिरन्तरिक्षप्रभ्दिरपोदकाभिः ॥ १ ॥
तिस्रः क्षपस्त्रिरहा तिव्रज भ्दिर्नासत्या भुजुमूहथुः पतग्डैः ।
समुद्रस्य धन्वत्रार्द्रस्य पारे त्रिभी रथेः शतपद्धिः पडश्र्वैः ॥ २ ॥

भाषार्थ---अब मुक्ति के आगे समुद्र भूमि और अन्तरिक्ष में शीघ्र चलने के लिये यानविद्या
लिखते हैं । जैसी कि वेदों में लिखी है---
(तुग्रो ह॰) ‘तुजि’ धतु से ‘रक’ प्रत्यय करने से तुग्र शब्द सिद्ध होता है । उसका अर्थ हिंसक
बलवान्, ग्रहण करनेवाला और स्थानवाला है । क्योंकि वैदिक शब्द सामान्य अर्थ में वर्नमान हैं ।
जो शत्रु को हनन करके अपने विजय बल और आदि पदार्थ और जिस जिस स्थान में सवारियों से
अत्यन्त सुख का ग्रहण किया चाहे, उन सबों का नाम ‘तुग्र’ है । (रयिंयद्ध) जो मनुष्य उत्तम विद्या, सुवर्ण
आदि पदार्थो की कामनावाला है, उस का जिन से पालन और भोग होता है, उन धनादि पदार्थो की
प्राप्ति भोग और विजय की इच्छा को आगे लिखे हुए प्रकारों से पूर्ण करे । (अश्विना) जो कोर्इ सोना,
चांदी, तांबा, पीतल, लोहा और लकड़ी आदि पदार्थो से अनेक प्रकार की कलायुक्त नौकाओं को रच
के, उनमें अग्नि, वायु और जल आदि का यथावत् प्रयोग कर और पदार्थो को भर के, व्यापार के
लिये (उदमेघे) समुद्र और नदी आदि में (अवाहा:) आवे जावे तो उस के द्रव्यादि पदार्थो की उन्नति
होती है । जो कोर्इ इस प्रकार से पुरुषार्थ करता है, वह (न कश्चिन्ममृवान) पदार्थो की प्राप्ति और
उन की रक्षासहित होकर दु:ख से मरण को प्राप्त कभी नहीं होता, क्योंकि वह पुरुषार्थी होके आलसी
नहीं रहता । वे नौका आदि किन को सिद्ध करने से होते हैं---अर्थात् जो अग्नि, वायु और पृथिव्यादि
पदार्थो में शीघ्रगमनादि गुण और अश्वि नाम से सिद्ध हैं, वे ही यानों को धारण और प्रेरणा आदि अपने
गुणों से वेगवान् कर देते हैं । वेदोक्त युक्ति से सिद्ध किये हुए नाव, विमान और रथ अर्थात् भूमि
में चलने वाली सवारियों का (ऊहथु:) जाना आना जिन पदार्थो से देश देशान्तर में सुख से होता है।
यहां पुरुषव्यत्यय से ‘ऊहतु:’ इस के स्थान में ‘ऊहथु:’ ऐसा प्रयोग किया गया है । उन से किस
किस प्रकार की सवारी सिद्ध होती हैं, सो लिखते हैं---(नौभि:) अर्थात् समुद्र में सुख से जाने आने
के लिये अत्यन्त उत्तम नौका होती हैं, (आत्मन्वतीभि:) जिन से उन के मालिक अथवा नौकर चला
के जाते आते रहें । व्यवहारी और राजपुरुष लोग इन सवारियों से समुद्र में जावें आवें । तथा
(अन्तरिक्षप्रुभ्दिः)अर्थात् जिन से आकाश में जाने आने की क्रिया सिद्ध होती है, जिन का नाम विमान
शब्द करके प्रसिद्ध है तथा (अपोदकाभि:) वे सवारी ऐसी शुद्ध और चिक्कन होनी चाहिए, जो जल
से न गलें और न जल्दी टूटें फूटें । इन तीन प्रकार की सवारियों की जो रीति पहले कह आये और
जो आगे कहेंगे, उसी के अनुसार बराबर उन को सिद्ध करें । 
इस अर्थ में निरुक्त का प्रमाण संस्कृत 
में लिखा है, सो देख लेना ।
 उसका अर्थ यह है ---
(अथातो द्युस्थाना दे) वायु और अग्नि आदि का नाम अश्वि है, क्योंकि सब पदार्थो में
धन्नज्यरूप करके वायु और विद्युत् रूप से अग्नि ये दोनों व्याप्त हो रहे हैं । तथा जल और अग्नि
का नाम भी अश्वि है, क्योंकि अग्नि ज्योति से युक्त और जल रस से युक्त होके व्याप्त हो रहा
है । ‘अश्वै:’ अर्थात् वे वेगादि गुणों से भी युक्त हैं । जिन पुरुषों को विमान आदि सवारियों की सिद्धि की इच्छा हो, वे वायु अग्नि और जल से उन को सिद्ध करें, यह और्णवाभ आचार्य का मत है ।
तथा कर्इ एक ऋषियों का ऐसा मत है कि अग्नि की ज्वाला और पृथिवी का नाम अश्वि है । पृथिवी
के विकार काष्ठ और लोहा आदि के कलायन्त्रा चलाने से भी अनेक प्रकार के वेगादि गुण सवारियों
वा अन्य कारीगरियों में किये जाते हैं । तथा कर्इ एक विद्वानों का ऐसा मत है कि ‘अहोरात्रौ’ अर्थात्
दिन रात्रि का नाम अश्वि है, क्योंकि इन से भी सब पदार्थो के संयोग और वियोग होने के कारण
से वेग उत्पन्न करते हैं, अर्थात् जैसे शरीर और ओषधि आदि में वृद्धि और क्षय होते हैं, इसी प्रकार
कर्इ एक शिल्प विद्या जाननेवाले विद्वानों का ऐसा भी मत है कि ‘सूर्याचन्द्रमसौः’ सूर्य और चंद्रमा
को अश्वि कहते हैं क्योंकि सूर्य और चन्ंमा के आकर्षणादि गुणों से जगत् के पृथिवी आदि पदार्थो
में संयोग वियोग, वृद्धि क्षय आदि श्रेष्ठ गुण उत्पन्न होते हैं । तथा ‘जर्भरी’ और ‘तुर्फरीतू’ ये दोनों
पूर्वोक्त अश्वि के नाम हैं । जर्भरी अर्थात् विमान आदि सवारियों के धरण करनेवाले और तुर्फरीतू
अर्थात् कलायन्त्रों के हनन से वायु, अग्नि, जल और पृथिवी के युक्तिपर्वूक प्रयोग से विमान आदि
सवारियों का धरण पोषण और वेग होते हैं । जैसे घोड़े और बैल चाबुक मारने से शीघ्र चलते हैं,
वैसे ही कलाकौशल से धरण और वायु आदि को कलाओं करके प्रेरने से सब प्रकार की शिल्पविद्या
सिद्ध होती है । ‘उदन्यजे’ अर्थात् वायु, अग्नि और जल के प्रयोग से समुद्र में सुख करके गमन हो
सकता है ।। १ ।।
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(तिस्रःक्षपस्त्रि॰ ) । (नासत्या॰) जो पूर्वोक्त अश्वि कह आये हैं, वे (भुज्युमूहथु:) अनेक
प्रकार के भोगों को प्राप्त करते हैं । क्योंकि जिन के वेग से तीन दिन रात में (समुद्र) सागर
आकाश और भूमि के पार नौका विमान और रथ करके पार जाने
में समर्थ होते हैं पूर्वोक्त तीन प्रकार के वाहनों से गमनागमन करना चाहिए ।
तथा अग्नि और जल के छ: घर बनाने चाहिए । जैसे उन यानों
से अनेक प्रकार के गमनागमन हो सकें तथा (पतंगै:) जिन से तीन प्रकार के मागो में यथावत् गमन
हो सकता है ।। २ ।।
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३.ऋग्वेद १.८.८-९.५-१२
४.ऋग्वेद 
५.ऋग्वेद १.३.४.२ ॥ भाषार्थ---(अनारम्भणेन ) हे मनुष्य लोगो ! तुम पूर्वोक्त प्रकार से अनारम्भण अर्थात् आलम्बरहित
समुद्र में अपने कायो की सिद्ध िकरने योग्य यानों को रच लो । (तद्वीरयेथाम्) वे यान पूर्वोक्त
अश्विनी से ही जाने आने के लिए सिद्ध होते हैं । (अनास्थाने) अर्थात् जिस आकाश और समुद्र में
विना आलम्ब से कोर्इ भी नहीं ठहर सकता, (अग्रभणे) जिस में हाथ से पकड़ने का आलम्ब कोर्इ
भी नहीं मिल सकता, (समुद्र ) ऐसा जो पृथिवी पर जल से पूर्ण समुद्र प्रत्यक्ष है तथा अन्तरिक्ष का
भी नाम समुद्र है, क्योंकि वह भी वर्षा के जल से पूर्ण रहता है, उन में किसी प्रकार का आलम्बन
सिवाय नौका और विमान से नहीं मिल सकता, इस से इन यानों को पुरुषार्थ से रच लेवें । (यदश्विनौ ऊहथुर्भु॰ ) जो यान वायु आदि अश्वि से रचा जाता है, वह उत्तम भोगों को प्राप्त कर देता है ।
क्योंकि (अस्तं) जो उन से चलाया जाता है, वह पूर्वोक्त समुद्र, भूमि और अन्तरिक्ष में सब कार्यो
को सिद्ध करता है । (शतारित्राम) उन नौकादि सवारियों में सैकड़ह अरित्रा अर्थात् जल की थाह लेने,
उन के थांभने और वायु आदि विघ्नों से रक्षा के लिये लोह आदि के लंगर भी रखना चाहिए, जिन
से जहां चाहे वहां उन यानों को थांभे । इसी प्रकार उन में सैकड़ह कलबन्ध्न और थांभने के साधन रखने
चाहिये । इस प्रकार के यानों से (तस्थिवांसम) स्थिर भोग को मनुष्य लोग प्राप्त होते हैं ।। ३ ।।
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(यमश्विना) जो अश्वि अर्थात् अग्नि और जल हैं, उनके संयोग से (श्वेतमश्वं) भाफरूप
अश्व अत्यन्त वेग देनेवाला होता है । जिस से कारीगर लोग सवारियों को (अघाश्वाय ) शीघ्र गमन
के लिए वेगयुक्त कर देते हैं, जिस से वेग की हानि नहीं हो सकती, उसको जितना बढ़ाया चाहे उतना
बढ़ सकता है । (शश्वदित्स्वस्ति) जिन यानों में बैठ के समुद्र और अन्तरिक्ष में निरन्तर स्वस्ति अर्थात्
नित्य सुख बढ़ता है । (ददथु:) जो कि वायु अग्नि और जल आदि से वेग गुण उत्पन्न होता है, उस
को मनुष्य लोग सुविचार से ग्रहण करें । (वाम्) यह सामर्थ्य पूर्वोक्त अश्विसंयुक्त पदार्थो ही में
है । (तत्) सो सामर्थ्य कैसा है कि (दात्राम्) जो दान करने के योग्य, (महि) अर्थात् बड़े बड़े शुभ
गुणों से युक्त, (कीर्त्तेन्यम्) अत्यन्त प्रशंसा करने के योग्य और सब मनुष्यों का उपकार करनेवाला
(भूत्) है । क्योंकि वही (पै:द्वः) अश्व मार्ग में शीघ्र चलानेवाला है । (सदमित्) अर्थात् जो अत्यन्त
वेग से युक्त है । (हव्य:) वह ग्रहण और दान देने के योग्य है । (अर्यः) वैश्य लोग तथा
शिल्पविद्या का स्वामी इस को अवश्य ग्रहण करे, क्योंकि इन यानों के विना द्वीपान्तर में जाना आना
कठिन है ।। ४ ।।
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यह यान किस प्रकार का बनाना चाहिए कि (त्राय: पवयो मधु॰) जिस में तीन पहिये हों, जिन
से वह जल और पृथिवी के ऊपर चलाया जाय, और मधुर वेगवाला हो, उस के सब अन्ग वज्र के
समान दृढ़ हों, जिन में कलायन्त्रा भी दृढ़ हों, जिन से शीघ्र गमन होवे । (त्राय: स्कम्भास:) उन में
तीन तीन थम्भे ऐसे बनाने चाहिए कि जिन के आधर सब कलायन्त्र लगे रहें । तथा (स्कभितास:)
वे थम्भे भी दूसरे काष्ठ वा लोहे के साथ लगे रहें, (आरा) जो कि नाभि के समान मध्यकाष्ठ होता
है, उसी में सब कलायन्त्रा जुड़े रहते हैं । (विश्वे) सब शिल्पिविद्वान् लोग ऐसे यानों को सिद्ध करना
अवश्य जानें । (सोमस्य वेनाम्) जिन से सुन्दर सुख की कामना सिद्ध होती है, (रथे) जिस रथ में
सब क्रीड़ासुखों की प्राप्ति होती है, (आरभे) उस के आरम्भ में अश्वि अर्थात् अग्नि और जल ही
मुख्य हैं । (त्रिर्नक्तं याथस्त्रिर्वश्विना दिवा) जिन यानों से तीन दिन और तीन रात में द्वीप द्वीपान्तर
में जा सकते हैं ।। ५ ।।
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३.ऋग्वेद १.३.५.७म
४.ऋग्वेद १.३.३४.८म
५.ऋग्वेद १.६.९.४म
भाष्यम्---यत्पूर्वोक्तं भूमिसमुांन्तरिक्षेषु गमनाथ यानमुक्तं, तत् पुन: कीदृशं कर्नव्यमित्यत्राह---
(परि ित्राधतुद्ध अयस्ताम्ररजतादिधतुत्रायेण रचनीयम् । इदं कीदृग्वेगं भवतीत्यत्राह---(आत्मेव
वात:नद्ध आगमनागमने यथात्मा मनश्च शीघ्रं गच्छत्यागच्छति, तथैव कलाप्रेरितौ वाव्वग्नी
अश्विनौ तद्यानं त्वरितं गमयत आगमयतश्चेति विज्ञेयमिति संक्षेपत: ।। ६ ।।
तच्च कीदृशं यानमित्यत्राह---(अरित्रांद्ध स्तम्भनाथ साध्नयुक्तं, (पृथुद्ध अतिविस्तीर्णम् ।
र्इदृश: स रथ: अग्न्यश्वयुक्त: (सिन्ध्ूनाम्द्ध महासमुांणां (तीर्थेद्ध तरणे कर्नव्येण्लं वेगवान्
भवतीति बोमयम् । (िध्या युनद्ध तत्रा ित्राविध्े रथे (इन्दव:द्ध जलानि वाष्पवेगाथ (युयुज्रेद्ध
यथावद्युक्तानि काव्र्याणि, येनातीव शीघ्रगामी स रथ: स्यादिति । इन्दव: इति जलनामसु ।।
निघण्टौ खण्डे १२ पठितम् ।। उन्देरिच्चादे: ।। उणादौ प्रथमे पादे सूत्राम् ।। ७ ।।
हे मनुष्या: ! (मनोजुव:द्ध मनोवद्गतयो वायवो यन्त्राकलाचालनैस्तेषु रथेषु पूर्वोक्तेषु
ित्राविध्यानेषु यूयम् (अयुग्मवम्द्ध तान् यथावद्योजयत । कथम्भूता अग्निवाव्वादय: ? (आ
वृषव्रातास:द्ध जलसेचनयुक्ता: । येषां संयोगे वाष्पजन्यवेगोत्पन्या वेगवन्ति तानि यानानि
सिण्व्न्तीत्युपदिश्यते ।। ८ ।।



भाषार्थ---फिर वह सवारी कैसी बनानी चाहिए कि जिन सवारियों से हमारा भूमि, जल और आकाश में प्रतिदिन आनन्द से जाना आना बनता है, 
वे लोहा, तांबा, चांदी आदि तीन धतुओं से बनती हैं । और जैसे नगर
वा ग्राम की गलियों में झटपट जाना आना बनता है, वैसे दूर देश में भी उन सवारियों से शीघ्र शीघ्र
जाना आना होता है । इसी प्रकार विद्या के निमिन पूर्वोक्त जो अश्वि हैं, उन से बड़े
बड़े कठिन मार्ग में भी सहज से जाना आना करें । जैसे मन के वेग के समान
शीघ्र गमन के लिए सवारियों से प्रतिदिन सुख से सब भूगोल के बीच जावें आवें ।। ६ ।।
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जो पूर्वोक्त अरित्रायुक्त यान बनते हैं, वे जो रथ बड़े बड़े
समुद्रो के मध्य से भी पार पहु!चाने में श्रेष्ठ होते हैं, जो विस्तृत और आकाश तथा समुद्र
में जाने आने के लिए अत्यन्त उत्तम होते हैं, जो मनुष्य उन रथों में यन्त्रसिद्ध करते हैं, वे सुखों को
प्राप्त होते हैं । उन तीन प्रकार के यानों में वाष्पवेग के लिए एक जलाशय
बना के उस में जलसेचन करना चाहिए, जिस से वह अत्यन्त वेग से चलनेवाला यान सिद्ध हो ।। ७ ।।
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(वि ये भ्राजन्ते) हे मनुष्य लोगो ! (मनोजुव:) अर्थात् जैसा मन का वेग है, वैसे वेगवाले
यान सिद्ध करो । (यन्मरुतो रथेषु) उन रथों में (मरुत्) अर्थात् वायु और अग्नि को मनोवेग के
समान चलाओ और उनके योग में जलों का भी स्थापन करो ।
जैसे जल के वाष्प घूमने की कलाओं को वेगवाली कर देते हैं, वैसे ही तुम भी उन को सब प्रकार
से युक्त करो । जो इस प्रकार से प्रयत्न करके सवारी सिद्ध करते हैं, वे अर्थात् विविध्
प्रकार के भोगों से प्रकाशमान होते हैं और जो इस प्रकार से इन शिल्पविद्यारूप
श्रेष्ठ यज्ञ करनेवाले सब भोगों से युक्त होते हैं, वे कभी दु:खी होके नष्ट नहीं
होते और सदा पराक्रम से बढ़ते जाते हैं । क्योंकि कलाकौशलता से युक्त वायु और अग्नि आदि पदार्थो
की अर्थात् कलाओं से पूर्व स्थान को छोड़ के मनोवेग यानों से जाते आते
हैं, उन ही से मनुष्यों को सुख भी बढ़ता है । इसलिये इन उत्तम यानों को अवश्य सिद्ध करें ।। ८ ।।
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ऋग्वेद १.३.३४.७म ॥
ऋग्वेद २.३.२३.४७ व ४८ ॥
भाष्यम्---समुंद्रे भूमौ अन्तरिक्षे गमनयोग्यमार्गस्य (पारायद्ध (गन्तवेद्ध गन्तुं यानानि रचनीयानि ।
(नावा मतीनाम्द्ध यथा समुद्रगमनवृनीनां मेधविनां नावा नौकया पारं गच्छन्ति, तथैव (न:द्ध
अस्माकमपि नौरुनमा भवेत् । (आयुन्जाथामनद्ध यथा मेधविभिरग्निजले आसमन्ताद्यानेषु
युज्येते, तथास्माभिरपि योजनीये भवत: । एवं सवर्ैर्मनुष्यै: समुांदीनां पारावारगमनाय पूर्वोक्तयानरचने
प्रयत्न: कर्नव्य इत्यर्थ: । मेधविनामसु, निघण्टौ १५ खण्डे मतय इति पठितम् ।। ९ ।।
हे मनुष्या: ! (सुपर्णा:द्ध शोभनपतनशीला: (हरय:द्ध अग्न्यादयोण्श्वा: (अपो वसाना:द्ध
जलपात्राच्छादिता अध्स्ताज्ज्वालारूपा: काष्ठेन्ध्नै: प्रज्वालिता: कलाकौशलभ्रमणयुक्ता:
छताश्चेनदा (छष्णंद्ध पृथिवीविकारमयं (नियानंद्ध निश्चितं यानं (दिवमुत्पनद्ध द्योतनात्मक-
माकाशमुत्पतन्ति, ऊमव गमयन्तीत्यर्थ: ।। १० ।।
(द्वादशप्रध्य:द्ध तेषु यानेषु प्रध्य: सर्वकलायुक्तानामराणां धरणार्था द्वादश कर्तव्या: ।
(चव्मेकम्द्ध तन्ममये सर्वकलाभ्रामणार्थमेवंफ चव्ं रचनीयम् । (त्राीणि नभ्यानिद्ध ममयस्थानि
ममयावयवधरणार्थानि त्राीणि यन्त्राणि रचनीयानि । तै: (सावंफ ित्राशताद्ध त्राीणि शतानि (शटवोद्धपता:द्ध
यन्त्राकला रचयित्वा स्थापनीया: । (चलाचलास:द्ध ता: कला: चला: चालनार्हा अचला: स्थित्यर्हा:,
(“ाष्टि:द्ध “ाष्टिसंख्याकानि कलायन्त्राणि स्थापनीयानि । तस्मिन्याने एतदादिविधनं सव कर्नव्यम् ।
(क उ तच्चिकेतद्ध इत्येतत्छत्यं को विजानाति ? (नद्ध न हि सर्वे ।। ११ ।।
इत्यादय एतद्विषया वेदेषु बहवो मन्त्रास्सन्त्यप्रसगदत्रा सर्वे नोल्लिख्यन्ते ।



भाषार्थ---हे मनुष्यो ! (आ नो नावा मतीनाम्) जैसे बुद्धिमान् मनुष्यों के बनाये नावादि यानों
से (पाराय॰) समुद्र के पारावार जाने के लिए सुगमता होती है, वैसे ही (आ, युन्जाथाम्) पूर्वोक्त
वायु आदि अश्वि का योग यथावत् करो । (रथम्) जिस प्रकार उन यानों से समुद्र के पार और वार
में जा सको (न:) हे मनुष्यो आओ आपस में मिल के इस प्रकार के यानों को रचें, जिन से सब
देश देशान्तर में हमारा जाना आना बने ।। ९ ।।
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(कृष्णं नि॰) अग्निजलयुक्त कृष्ण अर्थात् खैंचनेवाला जो (नियानं) निश्चित यान है, उस के
(हरय वेगादि गुणरूप, (सुपर्णा:) अच्छी प्रकार गमन करानेवाले, जो पूर्वोक्त अग्न्यादि अश्व हैं, वे (अपो
वसाना:) जलसेचनयुक्त वाष्प को प्राप्त होके (दिवमुत्पतन्ति) उस काष्ठ लौहा आदि से बने हुए विमान
को आकाश में उड़ा चलते हैं । (त आववृ॰) वे जब चारों ओर से सदन अर्थात् जल से वेगयुक्त होते
हैं, तब (ऋतस्य) अर्थात् यथार्थ सुख के देनेवाले होते हैं । (पृथिवी ध॰) जब जलकलाओं के द्वारा
पृथिवी जल से युक्त की जाती है, तब उस से उत्तम उत्तम भोग प्राप्त होते हैं ।। १० ।।
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(द्वादश प्रध्यः) इन यानों के बाहर भी थम्भे रचने चाहिये, जिन में सब कलायन्त्रा लगाये जायं।
(चक्रमेकम्) उन में एक चक्र बनाना चाहिए, जिस के घुमाने से सब कला घूमें । (त्त्रीणि नभ्यानि)
फिर उस के ममय में तीन चव् रचने चाहिए, कि एक के चलाने से सब रुक जायें, दूसरे के चलाने
से आगे चलें, और तीसरे के चलाने से पीछे चलें । ( तस्मिन् साकं त्रिशता॰ ) उस में तीन तीन सौ
(शक्गंव:) बड़ी बड़ी कीलें अर्थात् पेंच लगाने चाहिए कि जिन से उन के सब अन्ग जुड़ जायें, और
उन के निकालने से सब अलग अलग हो जायें । ( षष्टिर्न चलाचलास: ) उनमें ६० साठ कलायन्त्रा
रचने चाहिए, कर्इ एक चलते रहें और कुछ बन्द रहें । अर्थात् जब विमान को ऊपर चढ़ाना हो, तब
गैस या भाफ घर के ऊपर के मुख बन्द रखने चाहिए, और जब ऊपर से नीचे उतारना हो तब ऊपर के मुख
अनुमान से खोल देना चाहिए । ऐसे ही जब पूर्व को चलाना हो, तो पूर्व के बन्द करके पश्चिम के
खोलने चाहिए, और जो पश्चिम को चलाना हो तो पश्चिम के बन्द करके पूर्व के खोल देने चाहिए।
इसी प्रकार उनर दक्षिण में भी जान लेना । (न) उन में किसी प्रकार की भूल न रहनी चाहिए ।
(क उ तच्चिकेत) इस गम्भीर शिल्पविद्या को सब साधरण लोग नहीं जान सकते, किन्तु जो
महाविद्वान् हस्तक्रिया में चतुर और पुरुषार्थी लोग हैं, वे ही सिद्ध कर सकते हैं ।। ११ ।।
इस विषय के वेदों में बहुत मन्त्रा हैं, परन्तु यहां र्थोड़ा ही लिखने में बुद्धिमान् लोग बहुत समझ
लेंगे । इति नौविमानादिविद्याविषय: संक्षेपत: ।।

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