Saturday, October 12, 2013

आवश्यकता है सत्यमेव जयते के साथ ही शस्त्रमेव जयते की पूजक बनने की

             आवश्यकता है सत्यमेव जयते के साथ ही शस्त्रमेव जयते की पूजक बनने की

पुरातन भारतीय धर्म - चिंतन हमारे राष्ट्रचिंतन का आधार रहा है। वैदिक ज्ञान से दूर होने के बावजूद कुछ विकृतियों और धर्म के नाम पर फैलाए गये आडंबरों के रहते हुए भी आदि काल से हमारा यह धर्मचिंतन राष्ट्रचिंतन के रूप में सदा प्रबल रहा। सत्यमेव जयते का अवलंबन करने वाले पौराणिक मठाधीशों ने भी अपने-अपने इष्ट देव की मंदिरों में मूर्तियां स्थापित कीं, तो दुष्टात्माओं (आतंकियों या राष्ट्र को खण्ड-खण्ड करने वाली शक्तियों) के विनाश हेतु उन मूर्तियों के हाथ में शस्त्र देना न भूले। यह क्या था? यह वही चिंतन था कि शास्त्र की  रक्षा भी शस्त्र से ही संभव है। शास्त्र यदि ‘सत्यमेव जयते’ कहता है तो उसकी जय के लिए शस्त्र "शस्त्रमेव जयते" भी आवश्यक है। अर्थात भारतीय संस्कृति में सत्यमेव जयते" के साथ ही "शस्त्रमेव जयते" का पाठ भी पढ़ाया जाता रहा है।ऐसे आर्यों को ही यह भूमि उपयोग के लिए ईश्वर ने दी है। लेकिन अत्यंत दुखद बात है कि आर्यावरत अर्थात भारतवर्ष के रहने वाले आज जैनियों - बौद्धों के प्रभाव में आकर शस्त्रमेव जयते का पाठ भूल गया है जिसके कारण आज राष्ट्र देशविभाजक , राष्ट्र्घातक , विधर्मियों से पदाक्रांत हो रहा है और शस्त्रधारी देवी - देवताओं के पूजक हिन्दू शस्त्रमेव जयते को भूल अहिंसावादी बनने की धुन में नपुंसक बन बैठे हैं।

भारतीयों !
 समय की पुकार है सत्यमेव जयते के साथ ही शस्त्रमेव जयते के पूजक बनने की।

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