परमात्मा
नास्तिक भी अजीब जीव हैं। नास्तिक न तो परमात्मा को मानते हैं , और न ही परमात्मा के द्वारा दिए ज्ञान को। नास्तिको के लिए यहं अत्यंत आवश्यक है कि वे पहले इस बात का उत्तर ढूंढें कि जिसमे वे रह रहे हैं यह सृष्टि कैसे बनी ?
ब्रह्मसूत्र में कहा है -
सर्वत्र प्रसिद्धोपदेशात् । -ब्रह्मसूत्र 1 -2 - 1
अर्थात् - जो सब स्थान पर , और सब काल में प्रसिद्ध है उसके ज्ञान से परमात्मा की सिद्धि होती है। कैसे ?
ब्रह्म्सूत्र्कार ही कहता है -
जन्माद्यस्य यतः । - ब्रह्मसूत्र 1 - 1 - 2
अर्थात् - जिसने यह सृष्टि उत्पन्न की है , जो इसका पालन कर रहा है और जो इसका (समय पर) संहार करेगा, वह (ब्रह्म अर्थात परमात्मा) है।
संसार में कुछ भी स्वतः अर्थात अपने से बनता हुआ दिखाई नहीं देता । यह इस सर्वत्र प्रसिद्ध जगत् को देखने से हमें पत्ता चलता है। ब्रह्मसूत्र और फिर आधुनिक काल के विख्यात वैज्ञानिक न्यूटन ने भी कहा है कि -
प्रकृति का प्रत्येक कण यदि खड़ा है तो खड़ा ही रहेगा और यदि चल रहा है तो सीधी रेखा में एक स्थिर गति से चलता ही रहेगा , जब तक कि उस पर किसी बाहरी शक्ति का प्रभाव न पड़े।
अतः पृथ्वी , चन्द्र और अन्य बड़े - बड़े नक्षत्रों की गत्ति आरम्भ करने वाला और इसको इतने काल से अंडाकार मार्ग (ellipitical path) पर चलाने वाला, कोई महान् सामर्थ्यवान् होना चाहिए।
यह सिद्धांत सर्वमान्य हैं कि बिना कर्ता के कर्म नहीं होता। इसका वर्णन दर्शनाचार्य व्यास मुनि ने ब्रह्मसूत्रों में भी किया है। ब्रह्मसूत्र कहता है -
व्यतिरेकानवस्थितेश्चान्पेक्षत्वात।। - ब्रह्मसूत्र - 2 - 2- 4
अर्थात् - प्रकृति की गति उलट नहीं सकती , जब तक कोई बाहर से उस पर प्रभाव नहीं डाले।
अतः पृथ्वी , चन्द्र , तारागण इत्यादि कभी चलने आरम्भ हुए थे। उक्त सिद्धांतों से स्पष्ट है कि इतने बड़े - बड़े पदार्थ बिना किसी बाहरी शक्ति के हरकत में नहीं आ सकते। साथ ही ये जो अंडाकार मार्ग पर चल रहे हैं , वे बिना किसी महान शक्तिशाली के निरंतर प्रयत्न के नहीं चल सकते थे। वह सामर्थ्यवान् ही परमात्मा है।
वस्तुतः परमात्मा एक है। वह सृष्टि को रचने वाला है। उसने यह सृष्टि रची है प्रकृति से । प्रकृति चेतना रहित है । प्रकृति को , सृष्टि रचना को स्वयंभू नहीं माना जा सकता , क्योंकि इसमें अपने - आप बनने की शक्ति नहीं होती । जल ऊपर से नीचे की ओर गिरता है , इस कारण कि पृथ्वी में आकर्षण है । यदि यह आकर्षण न हो तो यह गिर नहीं सकता । इसी प्रकार जल समुद्र से ऊपर चढ़ आकाश में बादल रूप बन जाता है। यह सूर्य के उष्णत्व के कारण है। बिना सूर्य के आकर्षण के जल आकाश में नहीं जा सकता । इसी प्रकार प्रकृति से कुछ भी नहीं हो सकता , जब तक इसको कोई हिलाने - डुलाने वाला न हो । पृथ्वी और सूर्य में आकर्षण के रूप में परमात्मा ही है जो इसको अस्थिर करता अर्थात हिलाता - डुलाता है। तत्व रूप में यह शक्ति परमात्मा की ही है। इसको प्राण कहा जाता है । प्राण इस अचेतन शक्ति में हलचल उत्पन्न करता है ।
नास्तिक भी अजीब जीव हैं। नास्तिक न तो परमात्मा को मानते हैं , और न ही परमात्मा के द्वारा दिए ज्ञान को। नास्तिको के लिए यहं अत्यंत आवश्यक है कि वे पहले इस बात का उत्तर ढूंढें कि जिसमे वे रह रहे हैं यह सृष्टि कैसे बनी ?
ब्रह्मसूत्र में कहा है -
सर्वत्र प्रसिद्धोपदेशात् । -ब्रह्मसूत्र 1 -2 - 1
अर्थात् - जो सब स्थान पर , और सब काल में प्रसिद्ध है उसके ज्ञान से परमात्मा की सिद्धि होती है। कैसे ?
ब्रह्म्सूत्र्कार ही कहता है -
जन्माद्यस्य यतः । - ब्रह्मसूत्र 1 - 1 - 2
अर्थात् - जिसने यह सृष्टि उत्पन्न की है , जो इसका पालन कर रहा है और जो इसका (समय पर) संहार करेगा, वह (ब्रह्म अर्थात परमात्मा) है।
संसार में कुछ भी स्वतः अर्थात अपने से बनता हुआ दिखाई नहीं देता । यह इस सर्वत्र प्रसिद्ध जगत् को देखने से हमें पत्ता चलता है। ब्रह्मसूत्र और फिर आधुनिक काल के विख्यात वैज्ञानिक न्यूटन ने भी कहा है कि -
प्रकृति का प्रत्येक कण यदि खड़ा है तो खड़ा ही रहेगा और यदि चल रहा है तो सीधी रेखा में एक स्थिर गति से चलता ही रहेगा , जब तक कि उस पर किसी बाहरी शक्ति का प्रभाव न पड़े।
अतः पृथ्वी , चन्द्र और अन्य बड़े - बड़े नक्षत्रों की गत्ति आरम्भ करने वाला और इसको इतने काल से अंडाकार मार्ग (ellipitical path) पर चलाने वाला, कोई महान् सामर्थ्यवान् होना चाहिए।
यह सिद्धांत सर्वमान्य हैं कि बिना कर्ता के कर्म नहीं होता। इसका वर्णन दर्शनाचार्य व्यास मुनि ने ब्रह्मसूत्रों में भी किया है। ब्रह्मसूत्र कहता है -
व्यतिरेकानवस्थितेश्चान्पेक्षत्वात।। - ब्रह्मसूत्र - 2 - 2- 4
अर्थात् - प्रकृति की गति उलट नहीं सकती , जब तक कोई बाहर से उस पर प्रभाव नहीं डाले।
अतः पृथ्वी , चन्द्र , तारागण इत्यादि कभी चलने आरम्भ हुए थे। उक्त सिद्धांतों से स्पष्ट है कि इतने बड़े - बड़े पदार्थ बिना किसी बाहरी शक्ति के हरकत में नहीं आ सकते। साथ ही ये जो अंडाकार मार्ग पर चल रहे हैं , वे बिना किसी महान शक्तिशाली के निरंतर प्रयत्न के नहीं चल सकते थे। वह सामर्थ्यवान् ही परमात्मा है।
वस्तुतः परमात्मा एक है। वह सृष्टि को रचने वाला है। उसने यह सृष्टि रची है प्रकृति से । प्रकृति चेतना रहित है । प्रकृति को , सृष्टि रचना को स्वयंभू नहीं माना जा सकता , क्योंकि इसमें अपने - आप बनने की शक्ति नहीं होती । जल ऊपर से नीचे की ओर गिरता है , इस कारण कि पृथ्वी में आकर्षण है । यदि यह आकर्षण न हो तो यह गिर नहीं सकता । इसी प्रकार जल समुद्र से ऊपर चढ़ आकाश में बादल रूप बन जाता है। यह सूर्य के उष्णत्व के कारण है। बिना सूर्य के आकर्षण के जल आकाश में नहीं जा सकता । इसी प्रकार प्रकृति से कुछ भी नहीं हो सकता , जब तक इसको कोई हिलाने - डुलाने वाला न हो । पृथ्वी और सूर्य में आकर्षण के रूप में परमात्मा ही है जो इसको अस्थिर करता अर्थात हिलाता - डुलाता है। तत्व रूप में यह शक्ति परमात्मा की ही है। इसको प्राण कहा जाता है । प्राण इस अचेतन शक्ति में हलचल उत्पन्न करता है ।
Very well explained
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