Sunday, September 29, 2013

नागपुरी कहनी ( नागपुरिया कथा) - कृपाचार्य आउर द्रोणाचार्य कर जनम कर कहनी



              नागपुरी कहनी (नागपुरिया कथा)

द्रोणाचार्य आउर कृपाचार्य कर जनम कर कहनी
                अशोक "प्रवृद्ध"

गौतम ऋषि कर बेटा (पुत्र) कर नाव (नाम) शरद्वान रहे। उनकर जन्म बाण कर साथे होय रहे। उनके वेदाभ्यास में तनिको रुचि नी रहे आउर धनुर्विद्या से उनके बहुते ढेइर लगाव रहे। उ धनुर्विद्या में एतना निपुण होय गेलयं कि देवराज इन्द्र भी उनकर से भयभीत रहे लागलयं । इन्द्र भगवान उनके साधना से डगमगुवायक ले (खातीर) नामपदी नाव (नाम) कर एगो देवकन्या के शरद्वान जगन भेजलयं। शरद्वान उ देवकन्या कर सुन्दरता से एतना प्रभावित आउर उतेजित होय गेलयं कि उनकर वीर्य निकइल के फ़ेकाय गेलक आउर एगो सरकंडा में आयके गिरलक । उ गिरल वीर्य सरकंडा कर दूइ भाग में बटाय गेलक,जेकर एगो भाग में से कृप नाव  कर छोड़ा छउवा (छौवा/बालक)  उत्पन्न भेलक आउर दोसर भाग से कृपी नाव कर एगो मैयां (छोड़ी) छौवा (कन्या) जनम लेलक (उत्पन्न भेलक)। कृप भी धनुर्विद्या में आपन बापे (पिता) नीयर (जईसन) पारंगत होय गेलयं। भीष्म ईहे कृप के पाण्डव आउर  कौरव मन के शिक्षा-दीक्षा देवेक खातीर राखलयं आउर उ बाद में कृपाचार्य कर नाव (नाम) से प्रसिद्ध होलयं ।

कृपाचार्य पाण्डव आउर कौरव मनके शिक्षा देवे  लागलयं। जखन उ मनक सुरुआती शिक्षा ख़तम होय गेलक सेखन (तब) अस्त्र-शस्त्र कर बढ़िया से शिक्षा देवेक ले भीष्म द्रोण नाव (नाम) कर एगो आचार्य के आउर राइख लेलयं।

इ द्रोणाचार्य जी कर भी एगो विशेष कहनी (कहानी) हय । एक धांव (बेर) भरद्वाज मुनि यज्ञ करत रहयं। एक दिन उ गंगा नदी में नहात रहयं। ओहे जगन उ घृतार्ची नाव (नाम) कर एगो अप्सरा के गंगा जी में से नहाय के निकलते देइख लेलयं। उ अप्सरा के देखेक कर बाद उ भरद्वाज मुनि कर मन में काम वासना क्र भावना जाइग गेलक आउर उनकर वीर्य निकइल के गिर गेलक ,जेके भरद्वाज मुनि एगो यज्ञ पात्र में राइख देलयं।

आगे चइल के ओहे यज्ञ पात्र से द्रोण कर जनम (उत्पत्ति) होलक। द्रोण आपन पिता क्र आश्रम मेंहे रइह के चाइरों वेद आउर अस्त्र-शस्त्र कर ज्ञान में पारंगत होय गेलयं। द्रोण कर संगे प्रषत् नाव (नाम) कर एगो राजा कर बेटा (पुत्र) द्रुपद भी शिक्षा लेवत रहे ,तब संगे रहते-रहते द्रोण आउर द्रुपद में बहुते गहरा दोस्ती होय गेलक ।

ओहे बेरा माने ओहे आस -पास कर समय में परशुराम आपन समूचा धन- दउलत ब्राह्मण मनकर बीच में दान कइरके महेन्द्राचल पर्वत में तप करत रहयं । एक बेरा कर बात हके कि द्रोण परशुराम कर भीरे गेलयं आउर उनकर से दान देवेक ले विनती करे लागलयं , उ घरी तो परशुराम ठीना (जगन) कोनो नी  रहे तो इसन में परशुराम कहलयं (बोललयं) - “वत्स ! तोयं देरी से आले , मोयं तो आपन सब कुछ बहुते पहीलेहें ब्राह्मण मनके दान में दे देलों। आब तो मोर ठीना कोनों नखे , खाली अस्त्र-शस्त्र बाचल हय । अगर तोयं कहबे तो मोयं तोके उकेहे दान में दे सकोना।
 द्रोण ईहे तो चाहत रहयं उ तुरन्ते कहलयं , “हे गुरूदेव ! रउरे से अस्त्र-शस्त्र पायके मोके बहुते ख़ुशी होई , लेकिन रउरे के मोके इ अस्त्र-शस्त्र कर शिक्षा-दीक्षा भी देवेक पड़ी आउर उकर विधि-विधान भी बताएक पड़ी।”
 इ तरी माने इ नीयर परशुराम कर चेला (शिष्य) बइन के द्रोण अस्त्र-शस्त्र कर संगे -संगे समूचा विद्या कर  अभूतपूर्व ज्ञाता होय गेलक।

शिक्षा पूरा करेक कर बाद द्रोण कर शादी (वियाह) कृपाचार्य कर बहीन कृपी कर संगे होय गेलक। कृपी से द्रोण के एगो बेटा (पुत्र) भेलक । उनकर उ बेटा कर मुंह से जन्मखे घरी (बेरा) अश्व कर माने कि घोड़ा जइसन आवाज निकले लागलक। से चलते उ छउवा (बालक) कर नाव (नाम) अश्वत्थामा राखल गेलक। कोनो कारन वस राजाश्रय नी मिलेक कारण से द्रोण आपन पत्नी कृपी आउर बेटा अश्वत्थामा कर संगे गरीबी से रहत रहयं । एक दिन उनकर बेटा अश्वत्थामा दूध पीयेक खातीर बड़ा कांदत (रोअत) रहे, लेकिन गरीब होवेक कर चलते द्रोण आपन बेटा के दूध लाइनके देवेक नी सकत रहयं। अचानक उनके आपन बचपन कर मित्र राजा द्रुपद क्र इयाइद आय गेलक जे कि पाञ्चाल देश कर नरेश माने राजा बइन जाय रहे।
द्रोण द्रुपद जगन (ठीन) गेलयं आउर जायके कहलयं कि हे “मित्र ! मोंय रउरे कर बचपन कर दोस्त हकों । मोर एगो छोट बेटा हय , उके दूध कर बहुते जरूरत हय , दूध खातीर एगो गाय चाही येहे ले (खातीर) बड़ा आस लेइके हाम रउरे जगन आय ही।” एतना बात सुनल बाद द्रुपद आपन बचपन कर दोस्ती भुलाय के  आपन राजा (नरेश) होवेक कर अहंकार में आयके द्रोण ऊपरे बिगइड़ उठलयं आउर कहलयं , “तोके अपने- आप के मोर (दोस्त)  मित्र बताएक में लाज नखे लागत ? दोस्ती खाली आपन बराबइर कर आदमी कर संगे होवेला,ना कि तोर जईसन गरीब आउर मोर जईसन राजा कर संगे ।”

अपमानित होयके द्रोण उ जगन से लौइट आलयं आउर कृपाचार्य कर घर में गुप्त रूप से रहे लागलयं । एक दिन कर बात हके कि युधिष्ठिर आपन भाई मनक संगे गेंदा खेलत रहयं तो उ मनकर गेंदा एगो कुइयाँ में गिर गेलक। ओहे बेरा द्रोण ओने से होयके जात रहयं तो युधिष्ठिर कर नजर द्रोण पर परलक तो उनकर से कुइयाँ में से गेंदा निकलायंक ले कहलयं । उ मनक बात के सुइन के द्रोण कहलयं , "हम गेंदा जरुर निकलाय देब अगर तोहरे मन हमर परिवार खातिर खाना  कर जोगाड़ कइर देबा हले।” युधिष्ठिर बोललयं , “देव ! अगर हमरे कर पितामह कर अनुमति होय जई तो रउरे हर हमेसा लगीन (खातीर) भोजन कर चिन्ता से मुक्त होयके भोजन पाय सकीला ।” द्रोणाचार्य तुरंत एक मुट्ठी सींक लेइके उके मन्त्र से अभिमन्त्रित कइर देलयं आउर धनुष- वाण से एगो सींक से गेंदा के छेईदके गेंदा के सींक से फंसाय देलयं फिन (फिर) दोसरा सींक से गेंदा में फँसल सींक के छेदलयं । येहे तरी एक सींक से दोसरा सींक में छेदा करते - करते उ गेंदा के कुइयाँ में से बाहरे निकलाय देलयं ।

इ अद्भुत प्रयोग कर बारे में आउर द्रोण कर सभे विषय मंे प्रकाण्ड पण्डित होवेक विषय में मालूम होवल पर भीष्म पितामह इनके राजकुमार मन के उच्च शिक्षा देवेक ले (खातीर) नियुक्त कइर के राजाश्रय में ले लेलयं । येहे द्रोण आगे चइलके द्रोणाचार्य कर नाव (नाम) प्रसिद्ध , मशहूर भेलयं ।

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