अभिमानी का सिर नीचा होता है ।
अशोक "प्रवृद्ध"
अभिमानी का सिर नीचा होता है, परंतु इस संसार में ऐसे लोग भी हैं जो सिर नीचा होने पर भी, उसको नीचा नहीं मानते। ऐसे लोगों के लिए ही कहावत बनी है—‘रस्सी जल गई, पर बल नहीं टूटे’।
इसका कारण मनुष्य की आद्योपांत विवेक-शून्यता है। विवेक अपने चारों ओर घटने वाली घटनाओं के ठीक मूल्यांकन का नाम है।
मन के विकार हैं—काम, क्रोध, लोभ, मोह तथा अहंकार। जब इन विकारों के कारण बुद्धि मलिन हो जाती है तो वह ठीक को गलत और गलत को ठीक समझने लगती है। इसको विवेक-शून्यता कहते हैं।
मन के विकारों में अहंकार सबसे अन्तिम और सबसे अधिक बुद्धि भ्रष्ट करने वाला है। अहंकारवश मनुष्य ठोकर खाकर गिर पड़ता है, बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है। बुद्धि भ्रष्ट हो जाने से वह नहीं मानता कि वह गिर पड़ा है अथवा उसका अभिमान व्यर्थ था। वह अपनी भूल स्वीकार नहीं करता और अन्त तक कहता रहता है—मैं न मानूँ, मैं न मानूँ।
व्यक्ति अथवा जातियों के जीवन में समय-समय पर ऐसे उदाहरण मिलते रहते हैं। पिछले विश्वव्यापी युद्ध में जर्मनी की पराजय 1944 के जून मास में आरम्भ हुई थी। तब ही रोमेल इत्यादि जनरल हिटलर को चेतावनी दे रहे थे कि उसके सैनिक-संगठन में दोष है, परन्तु अपनी प्रारम्भिक विजयों से मदान्ध हिटलर उसे नहीं समझ पाया। वह अन्त तक भी यह न समझ सका कि उसकी सम्पूर्ण योजना बालू की भाँति गिरती जा रही है। अन्त समय में भी वह अपनी भूल को नहीं माना।
अशोक "प्रवृद्ध"
अभिमानी का सिर नीचा होता है, परंतु इस संसार में ऐसे लोग भी हैं जो सिर नीचा होने पर भी, उसको नीचा नहीं मानते। ऐसे लोगों के लिए ही कहावत बनी है—‘रस्सी जल गई, पर बल नहीं टूटे’।
इसका कारण मनुष्य की आद्योपांत विवेक-शून्यता है। विवेक अपने चारों ओर घटने वाली घटनाओं के ठीक मूल्यांकन का नाम है।
मन के विकार हैं—काम, क्रोध, लोभ, मोह तथा अहंकार। जब इन विकारों के कारण बुद्धि मलिन हो जाती है तो वह ठीक को गलत और गलत को ठीक समझने लगती है। इसको विवेक-शून्यता कहते हैं।
मन के विकारों में अहंकार सबसे अन्तिम और सबसे अधिक बुद्धि भ्रष्ट करने वाला है। अहंकारवश मनुष्य ठोकर खाकर गिर पड़ता है, बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है। बुद्धि भ्रष्ट हो जाने से वह नहीं मानता कि वह गिर पड़ा है अथवा उसका अभिमान व्यर्थ था। वह अपनी भूल स्वीकार नहीं करता और अन्त तक कहता रहता है—मैं न मानूँ, मैं न मानूँ।
व्यक्ति अथवा जातियों के जीवन में समय-समय पर ऐसे उदाहरण मिलते रहते हैं। पिछले विश्वव्यापी युद्ध में जर्मनी की पराजय 1944 के जून मास में आरम्भ हुई थी। तब ही रोमेल इत्यादि जनरल हिटलर को चेतावनी दे रहे थे कि उसके सैनिक-संगठन में दोष है, परन्तु अपनी प्रारम्भिक विजयों से मदान्ध हिटलर उसे नहीं समझ पाया। वह अन्त तक भी यह न समझ सका कि उसकी सम्पूर्ण योजना बालू की भाँति गिरती जा रही है। अन्त समय में भी वह अपनी भूल को नहीं माना।
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