Saturday, November 16, 2013

हिन्दू सदा मुसीबत से बचने का यत्न करता है । - अशोक "प्रवृद्ध"

हिन्दू सदा मुसीबत से बचने का यत्न करता है ।
अशोक "प्रवृद्ध"

 आर्य सनातन वैदिक धर्मावलम्बी हिन्दू एक अति प्राचीन जाति है । परन्तु भारतवर्ष में रहने वाले अपने वैदिक धर्मशास्त्रों को भूलकर मानसिक तथा बुद्धि के विचार से वृद्ध हो गये हैं। कई कारणों से यह वृद्ध जाति दासता की श्रृंखलाओं में जकड गयी । इस पर भी इसने धर्म और शास्त्र को न समझते हुए इनको फेंक नहीं दिया , प्रयुत पकड़े रखा ।अतः महर्षि स्वामी दयानंद सरस्वती के वेदादि ग्रंथों के सन्दर्भ में भाष्य और विचारों के परिन्स्वरूप वेदशास्त्र पिता बन गए और जाति में नवजीवन का संचार हुआ , परन्तु इसके संरक्षक बनने के लिए आ गए - ईसाई और अङ्ग्रेज । दोनों का परस्पर समझौता था । ईसाई तो इस जाति को इसके स्वाभाविक अभिभावकों अर्थात वेदादि शास्त्रों के संरक्षण से निकालकर इसको बाइबिल के संरक्षण में लाने में जुट गए । अंग्रेजों ने ईसाईयों को अपने कार्य में सहायता देने का निर्णय कर लिया ।
हिन्दू सदा मुसीबत से बचने का यत्न करता है । यह मुसलमानों का झगडा भी , जो एक लम्बे समय से हमारे गले पड़ा हुआ है, गाँधी जी तथा अन्य खान्ग्रेसी अर्थात कांग्रेसी नेताओं की इसी प्रवृति का परिणाम है ।

सन् 1857 के गद्दर से पहले हिन्दू यह समझते थे कि उन्होंने यहाँ स्वराज्य स्थापित करना है । इसके लिए वे यत्न कर रहे थे , यद्यपि तुरंत कोई आशा प्रतीत नहीं होती थी । मराठों और पूर्व के नेताओं ने तुरन्त अंग्रेजों से छुट्टी पाने के लिए मृतप्रायः मुसलमानों से मिलकर ग़दर करने का यत्न किया और बुरी तरह असफल रहे ।

इसके पश्चात् तो महर्षि स्वामी दयानंद सरस्वती ने खुले आम कहना आरम्भ कर दिया कि हिन्दुस्तानियों को एकमत होकर स्वराज्य प्राप्त करना चाहिए । स्वामी जी समझते थे कि मुसलामानों को हिन्दू बनाकर ही साथ मिलाया जा सकता है , अन्यथा हिन्दू अकेले ही स्वराज्य पाने में समर्थ हैं । स्वामीजी की इस नीति से भयभीत ब्रिटिश सरकार ने उनको तो मरवा डाला और खान्ग्रेस नेताओं के मन - मस्तिष्क में यह भर दिया कि स्वराज्य तो एक ओर , सरकारी नौकरी और पदवी लेने के लिए भी हिन्दुओं को मुसलमानों के साथ मिलकर प्रार्थना करनी चाहिए । उनको साथ मिलाने का यह मूल्य देना पडा कि मुसलमानों के पृथक मैम्बर और पृथक मतदाता स्वीकार करने पड़े । अब मोहनदास करमचंद गाँधी ने एक और झगडा मोल ले लिया। वह यह कि मुसलमानों को साथ रखने के लिए खिलाफत - आन्दोलन अर्थात टर्की का राज्य सब अरब देशों पर बने रहने की मांग , स्वराज्य की मांग के साथ मिला दी । महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती ने जाति के संरक्षनकर्ता अर्थात वेदादि को समीप लाने का यत्न किया , परन्तु ये गांधीवादी , महर्षि स्वामी दयानंद के विचारों  का खंडन कर , नवजीवन प्राप्त हिन्दू जाति की उंगली अंगेजो से बचाने के लिए मुसलमानों के हाथ में पकड़ा बैठे ।
यह स्पष्ट रूप से गाँधी की मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति थी । तब से जो खान्ग्र्सियों की मुस्लिम तुष्टीकरण आरम्भ हुई , वह अब तक निरन्तर जारी है । 

हिन्दू का मन बूढ़ा हो गया है । जो प्रकाश की खोज में अँधेरे में कूदना नहीं चाहता हो , उसे बूढ़ा हो जाना ही समझना चाहिए । बूढों की भांति वह लाठी का आश्रय लेता रहता है । एक युवक तो भय का कार्य करने का साहस रखता है , परन्तु एक बूढ़ा व्यक्ति बिना कारण किसी के कंधे पर हाथ रखना चाहता है । इसीलिए हिन्दू जाति (कौम) का कायाकल्प कर इसे युवा बनाना चाहिए , तब विदेशी मानसिकता वाली कंसग्रेसी सरकार और छद्म धर्मनिरपेक्षवादियों से मुक्ति अर्थात स्वराज्य मिल जायेगा।

जिस प्रकार पिता अपने पुत्र को जन्म देकर अपने परिवार में जवानी जा संचार करता है , वैसे ही जातियों अर्थात कौमों को भी करना चाहिए । महर्षि स्वामी दयानंद सरस्वती ने हिन्दू जाति (कौम) में नवजीवन संचार करने के लिए आर्य समाज का बीज डाला था, परन्तु हिन्दू प्रसव और तदनंतर बच्चे के पालन - पोषण का कष्ट सहने से बचने के लिए गर्भपात करा बैठे हैं । ये सबसे सुगम कार्य विद्यालय - महाविद्यालय , खोल सहज दानी बनने का ढंग निकाल बैठे हैं ।आर्य समाज अब नवजात मृत शिशु की भान्ति होकर रह गई है । इसे नवजीवन संचार कर अर्थात वेद -ज्ञान से सिञ्चित कर युवा करना है ।

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