Saturday, November 23, 2013

वेदों में मनुष्य के चरित्रं निर्माण सम्बन्धी मन्त्र

वेदों में मनुष्य के चरित्रं निर्माण सम्बन्धी मन्त्र

वेद समस्त धर्म का मूल है और समस्त ज्ञान का स्त्रोत है ।
वेद, ज्ञान का महासागर हैं । हमारे अस्तित्व का ऐसा कोन- सा पक्ष है जिसकी मीमांसा वेदों में नहीं मिलती । ये एक ज्ञानी भक्त के लिए भक्ति का सरोवर है, नीतिज्ञों के लिए नीतिग्रंथ, तो शोधार्थियों के लिए वैज्ञानिक सूत्रकोष है । वेदों में मनुष्य को चरित्र निर्माण संबंधी शिक्षा प्रदान करने के उद्देश्य से भी अनेकों प्रेरणात्मक मंत्र दिये गये हैं। इनमें से कुछ मंत्र निम्नांकित हैं -

परिमाग्ने दुश्चरिताद बाधस्वा मा सुचरिते भज।
अग्निदेव आप हमें दुश्चरित से सदा बचावें और सुचरित में सदा लगावें।

अहमनृतात सत्यमुपैमि।
 मैं असत्य से सत्य को प्राप्त होता हूं।

 परि माग्ने…. उदायुषा स्वायुषोदस्थाममृतां अनु।
 अग्निदेव मुझे दुश्चरित से हटाकर सुचरित की ओर प्रेरित करो।

 वयं देवानां सुमतौ स्याम
 हम देवों की कल्याणकारी बुद्घि को प्राप्त करें।

 मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे।
 हम सभी प्राणियों को मित्र की दृष्टि से देखें।

मा गृध: कस्य स्विद्घनम।
किसी के धन की मत कामना करो।
अग्ने नय सुपथा राये अस्मान। 
हमें सन्मार्ग द्वारा धनप्राप्ति करने के लिए प्रेरित करो।

 उत न: सुभगां अरिर्वोचेयुर्दस्म कृष्टय:।
 स्यामेदिन्द्रस्य शर्मणि। 
दुर्गुणों और पापों को क्षीण करने वाले प्रभो। हमारे शत्रु भी हमें सच्चरित्रता के कारण श्रेष्ठ और सौभाग्यशाली कहें। हम सच्चरित्रता के द्वारा आप की कल्याणकारी भक्ति में लीन रहें।

भद्रं भद्रं क्रतुमस्मासु धेहि।
 प्रभो हम लोगों के सुख और कल्याणमय उत्तम संकल्प, ज्ञान और कर्म को धारण करें। 

स्वस्ति पंथामनुचरेम।
 हम कल्याणकारी मार्ग के पथिक बनें। 

जीवाज्योतिरशीमहि। 
हम शरीरधारी प्राणी विशिष्ट ज्योति को प्राप्त करें।

 कृधो न यशसो जने। 
हमें अपने देश में यशस्वी बनाएं। मां की ब्रह्माद्विषं वन: विद्वानों में द्वेष करने वालों से हम दूर रहें। 

वयं सर्वेषु यशस: स्याम।
 हम समस्त जीवों में यशस्वी बनें।

सर्वा आशा मम मित्रं भवंतु।
 हमारे लिए सभी दिशाएं कल्याणकारी हों। 

शुक्रोअसि स्वरसि ज्योतिरसि। 
आप्नुहि श्रेयांसमति समं क्राम।
 मनुष्य तुम्हारी आत्मा वीर्यवान, तेजस्वी, आन्नदयुक्त और प्रकाशस्वरूप है। तू श्रेष्ठता को प्राप्त कर और दूसरों से आगे बढ़ जा।

 उलूकयातुं शुशुलूकयातुं जहि श्वयातुमुत कोकयातुम। सुपर्णयातुमुत गृधयातुं दृषदेव प्रमृण रक्ष इंद्र।।
 इंद्र तू उल्लू की चाल वाले अर्थात मोह को, उल्लू के बच्चे की चाल वाले अर्थात ईर्ष्या द्वेष को कुत्ते की चाल वाली सत्वर, वृत्ति को, कबूतर जैसी कामवासना को, गरूड़ की चाल वाले अहंकार को, गृध की चाल वाले लोभ को-ऐसी राक्षसी भावनाओं को कठोरता से मसल दे।

वैश्व दैवीं वर्चस आ रभध्वं शुद्घा भवतं: शुचय: पावका:। अतिक्रामन्तो दुरिता पदानि शतं हिमा: सर्ववीरा मदेम।।
पवित्रता और तेज के लिए उत्तम ज्ञान वाली वेदवाणी के द्वारा पवित्र जीवन बनाते हुए दूसरों को भी पवित्र मार्ग के लिए प्रभो प्रेरणा दो। पापप्रेरक कार्यों का अतिक्रमण करते हुए हम सौ वर्ष तक पवित्रता के साथ आनंद से रहें।

उद्यानं ते पुरूष नावयानं जीवातुं ते दक्षतातिं कृणोमि। आ हिं रोहेमममृतं सुखं रथमथ जिविर्विदथमा वदामि।।
मानव तेरे जीवन का लक्ष्य ऊपर को चढ़ना है, नीचे को जाना नही, उन्नति ही करनी है, अवनति नही। आगे प्रभु प्रेरणा देते हैं-हे मानव इस प्रकार जीने के लिए मैं तुझे बल देता हूं। इस जीवनरूपी रथ पर चढ़कर उन्नति को प्राप्त कर और संसार में अपने चरित्र के बल पर प्रशंसित होकर दूसरों को भी प्रेरणा दे।

उत्तिष्ठत संनह्वïध्वं मित्रा देवजना यूयम।
 इमं संग्रामं संजित्य यथालोकम वितिष्ठध्वम।। 
मानव तुम अपने आत्मबल के साथ इस शरीर, मन और इंद्रियों के शासक हो। अपने सर्वश्रेष्ठ मित्रों के साथ तुम पाप वासना का त्याग करने के लिए तैयार हो जाओ। इस पाप के विरूद्घ संग्राम को जीतकर अपने जीवन के अंतिम लक्ष्य मोक्ष को प्राप्त करो।

अनुव्रत: पितु: पुत्रो मात्रा भवतु संमना:।
जाया पत्ये मधुमतीं वाचं वदतु शांतिवाम।।
पुत्र पिता और माता के साथ उनके अनुकूल व्यवहार करे। पत्नी, पति के साथ मीठी और शांतिप्रिय वाणी बोले।

सहृदयं सांमनस्यमिविद्वेषं कृणोमि व:।
अन्यो अन्यमभिदूर्यत वत्सं जातमिवाघ्न्या।।
ओ मनुष्य तुम अपने जीवन में एक दूसरे के प्रति सदाचार के मार्ग पर चलकर स्नेह युक्त हृदय वाले, एक सदृश श्रेष्ठ उत्तम विचारों वाले और वैर का सर्वथा त्याग करते हुए जीवन व्यतीत करो। तुम प्राणियों के साथ ऐसा नि:स्वार्थपूर्ण प्रेम करो जैसे गौ अपने उत्पन्न बछड़े के साथ करती है। उपर्युक्त वैदिक भावनाएं चरित्र निर्माण की सीढ़ियां हैं। इन भावनाओं को अपने जीवन में धारण कर मनुष्य श्रेष्ठ चरित्रवान हो सकता है।

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