Tuesday, November 19, 2013

मोहनदास करमचंद गाँधी देश के लिए उचित नेता नहीं थे। महात्मा जी एक भीरू नेता थे। नेता तो साहसी व्यक्ति होना चाहिए । - अशोक "प्रवृद्ध"

मोहनदास करमचंद गाँधी देश के लिए उचित नेता नहीं थे। महात्मा जी एक भीरू नेता थे। नेता तो साहसी व्यक्ति होना चाहिए ।
अशोक "प्रवृद्ध"


अहिंसा सर्वदा और सर्वत्र मिथ्या सिद्धांत है । यह व्यापक धर्मों में नहीं है । योग साधना करने वालों के लिए अहिंसा एक व्रत है , परन्तु जन साधारण के लिए यह नहीं है । इसके अतिरिक्त भी प्रत्येक धर्म - कर्म में भी धर्म उद्देश्य होना चाहिए ।
"शान्तिः शान्तिरेव च ।"
शान्ति शान्ति स्थापित करने के लिए हो ।

यदि किसी समय शान्त रहने से अशान्ति फैलती है तो शान्ति अशान्ति का साधन बन जाती है । इसी प्रकार अन्य धर्मों की बात है । जैसे - सत्य । सत्य सत्यवक्ताओं की रक्षा के लिए है । जो सत्य रक्षा नहीं कर सकता , वह धर्म नहीं हो सकता ।
जैसे सदा हिंसा नहीं चल सकती , वैसे ही सदा अहिंसा भी एक मिथ्या नीति है । इस कारण कम से कम मैं तो अहिंसा का भक्त नहीं हूँ और कोई भी बुद्धिमान व्यक्ति सर्वदा और सर्वत्र अहिंसा का भक्त नहीं हो सकता ।

यह प्रायः देखा जाता है कि हिंसा - अहिंसा का सम्बन्ध आत्मा के साथ है । यह स्वभाव से चलती है । अतः जिस व्यक्ति का स्वभाव हिंसा करना नहीं , वह हिंसा नहीं कर सकेगा । इसी प्रकार अहिंसा करने का स्वभाव सबका नहीं हो सकता । 
हमारी सामाजिक व्यवस्था में ब्राह्मण और क्षत्रिय स्वभाव से भिन्न - भिन्न श्रेणियां मानी गई हैं । क्षत्रिय वर्ग के लोग जब धर्म की स्थापना के लिए हिंसा करते हैं , तो वे पाप नहीं करते । 

अब प्रश्न उत्पन्न होता है कि किस प्रकार जाना जाये कि अमुक परिस्थिति में हिंसा करना ठीक है अथवा अहिंसा ?
यह एक अति दुस्तर कार्य है । इस पर भी इसका निर्णय विपक्षी को देखकर किया जा सकता है । विपक्षी का निर्णय करना कठिन है । विपक्षी असुर जो है , जो " आत्मवत सर्व भूतेषु " के सिद्धांत को नहीं मानता , वह अपने दैवी पक्ष का नहीं हो सकता । वह असुर है और शत्रु है । धर्म , शत्रु को पराजित कर अपने अधीन रखने में है । इसके लिए साम , दाम , दंड , भेद नीति समय - समयानुसार चलाये जा सकते हैं । जो शत्रु को पराजित करने के लिए उचित नीति का अवलम्बन करते हैं , वे नेता कहाते हैं । मोहनदास करमचंद गाँधी देश के लिए उचित नेता नहीं थे। महात्मा जी एक भीरू नेता थे। नेता तो साहसी व्यक्ति होना चाहिए । महात्मा जी दस - बीस कांस्टेबलों की हत्या होते देख , भयभीत हो उठते थे । एक बार हत्याएं हुई थी उत्तरप्रदेश में और गाँधी ने सत्याग्रह बंद कर दिया था मद्रास प्रान्त में । इसके अतिरिक्त वे अपने कार्यों से आदर्श अहिंसा न तो विपक्षी में उत्पन्न कर सके थे  और न ही अपने पक्ष में । इस कारण हत्याओं के दर्शन से देश - व्यापी आन्दोलन को बंद कर देना उनमें साहसहीनता प्रकट करता है । 
यदि तो वे कांस्टेबल शान्तिपूर्वक उनको पकड़ने आये होते  और तब उनकी हत्या होती , तब भी कोई बात थी। वे तो लाठी चलाने की नीयत से आये थे । 

इस प्रकार यदि देश पर शत्रु आक्रमण कर दे तो उनके सामने अहिंसा की नीति अशुद्ध होगी । यह धर्म नहीं हो सकता ।
स्वाधीनता - संग्राम में हिंसक क्रान्तििकारी अपना कार्य कर रहे थे और गाँधी जी इस कार्य के लिए स्वभाव से अयोग्य थे । वे शांतिमय ढंग पर आन्दोलन चला सकते थे और कुछ लोग थे जो इतना कुछ भी नहीं कर सकते थे । वे तत्कालीन ब्रिटिश सरकार को सम्मतिमात्र दे सकते थे । ऐसा ही सन् 1901से 1919 तक नरम दल के लोग करते रहे थे । तीनों प्रकार के लोग अपने - अपने स्वभावानुसार कार्य सकते थे । तीनों के कार्यों का उद्देश्य एक होना चाहिए था और वह होना चाहिए था देश में स्वराज्य उत्पन्न करना । इन तीनों ही को एक - दुसरे की निंदा और दूसरों का मार्ग अवरूद्ध नहीं करना चाहिए था । ये तीनों समानांतर रेखा में कार्य कार्य सकते थे । 

दोष हिंसात्मक आन्दोलन में नहीं , प्रत्युत हिंसावादियों के विरोध करने में था । एक ऐसा भी काल अर्थात समय आया था जब नरम दल वाले गोखले , फिरोज शाह मेहता इत्यादि गरम दल के तिलक , लाला लाजपत राय , इत्यादि को देश का शत्रु कहते थे । फिर ऐसा समय भी आया था और गांधीवादी बाल गंगाधर तिलक इत्यादि की निंदा करने लगे । गाँधीवादियों ने एनीबिन्सेंट की निंदा करते हुए उसको क्षेत्र से बाहर कर दिया था । गाँधी जी ने भगत सिंह की भी निंदा की थी । ये सब घटनाएँ स्पष्टतः गाँधी के दोषयुक्त व्यवहार को दरशाता है । 

जब गाँधी जी ने सब वृद्ध और अनुभवी नेता की सम्मति के विरूद्ध खिलाफत को भारतवर्ष की राजनीति में सम्मिलित की थी , तब कुछ नेताओं ने इसको नहीं माना था । तब न मानने वालों को क्षेत्र से बाहर कर दिया गया था । यह अनुचित था और पाप - कर्म था । परन्तु उस समय नरम दल के नेताओं को और गाँधी जी को समझाने वाला कोई दिखाई नहीं देता था । इसका कारण था , देश में ब्राह्मण वर्ग अर्थात विद्वान वर्ग का अभाव था , अन्यथा वे देश में इस विषमता को सुलझा देते । 
मित्रों ! 

वर्तमान में भी भारतवर्ष में विद्वान अर्थात ब्राह्मण - वर्ग का अभाव है , यही कारण है कि धूर्तों और चापलूसों की बन आई है , और विदेशी मानसिकता वाली खाङ्ग्रेस पार्टी और उसके धर्मनिरपेक्ष सहयोगी भारतवासियों को मूर्ख बना देश को लूटने , बेचने और अपमानित करने का राष्ट्रविरोधी गतिविधियों को खुलेआम अंजाम देने की साहस अर्थात हिमाकत कर रहे हैं ।

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